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बोर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ की प्रथम प्रादर्श प्रति का लेखन श्र तदेवी स्वरूपा गणा नाम की साध्वी ने किया जो गुरुदेव दुर्गस्वामी की शिष्या हैं। संवत् ६६२ की ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी, गुरुवार के दिन चन्द्र का पुनर्वसु नक्षत्र के साथ योग होने पर इस ग्रन्थ की रचना अन्तिम रूप से सम्पन्न हुई।
"भिन्नमालस्थ जिन मन्दिर के अग्रिम मण्डप में रहते हुए यह कथा कही"यह वाक्य शोधार्थियों के लिये विचारणीय है।
उपमिति भव प्रपंच कथा की मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा करते हुए विश्वविख्यात विद्वान डा. हर्मन जेकोबी ने लिखा है :
I did find something, still more important, the great literary value of the 'Upamiti Bhava Prapancha Katha' and the fact that it is the first alegorical work in Indian literature.
(उपमिति भव प्रपंच कथा की अंग्रेजी प्रस्तावना) प्राचार्य वर्द्धमान सूरि ने अपनी उपदेश माला-वृत्ति के अन्त में लिखा है :
कृतिरियं जिन-जैमिनी-कणभुक् सौगतादि दर्शन-वेदिनः ।
सकल-ग्रन्थार्थ-निपुणस्य श्री सिद्धर्महाचार्यस्येति ।।
इससे सिद्धर्षि की सभी धर्मों के सिद्धान्तों में पारंगतता का प्रमाण मिलता है । वे न केवल जैन सिद्धान्तों के ही अपितु मीमांसक, वैशेषिक, सांख्य, बोर मांदि. सभी भारतीय दर्शनों के पारसज्या विद्वान थे।
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