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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ (२) चन्द्र केवली चरित्र, (३) उपदेश माला विवरण और (४) सिद्धसेन न्यायावतार की टीका ।
सिद्धर्षि की इन चार रचनाओं में से 'उपमिति भव प्रपंच कथा' एक ऐसी उच्चकोटि की आध्यात्मिक कृति है, जिससे सिद्धर्षि की कीर्ति पताका आध्यात्मिक क्षितिज में तब तक लहराती रहेगी जब तक कि हमारी इस आर्यधरा पर जिनशासन का वर्चस्व विद्यमान रहेगा।
सिद्धर्षि ने उपमिति भवप्रपंच कथा नामक अपने ग्रन्थ की प्रशस्ति में अपनी गुरु परम्परा इस प्रकार दी है
"द्योतिताखिल भावार्थः, सद्भव्याजप्रबोधकः । सूराचार्योऽभवदीप्तः, साक्षादिव दिवाकरः ।।१।। स निवृत्तिकुलोद्भूतो, लाटदेशविभूषणः । आचारपंचकोद्य क्तः, प्रसिद्धो जगतीतले ।। २ ।। अभूद्भूतहितो धीरस्ततो देल्लमहत्तर : । ज्योतिनिमित्तशास्त्रज्ञः, प्रसिद्धो देशविस्तरे ।। ३ ।। ततोऽभूदुल्लसत्कीर्तिब्रह्मगोत्रविभूषणः । दुर्गस्वामी महाभागः, प्रख्यातः पृथिवितले ।। ४ ।। प्रव्रज्या गृह्णता येन, गृहं सद्धनपूरितम् । हित्वा सद्धर्म माहात्म्यं, क्रिययैव प्रकाशितम् ।। ५ ।। सद्दीक्षादायकं तस्य, स्वस्य चाहं गुरूत्तमम् । नमस्यामि महाभाग, गर्गषि मुनिपुगवम् ।। ७ ॥ क्लिष्टेऽपि दुःषमाकाले, यः पूर्वमुनिचर्यया । विजहारैव नि:षंगो, दुर्गस्वामी धरातले ।। ८ ।। सद्देशनांशुभिर्लोके, द्योतित्वा भास्करोपमः । श्री भिन्नमाले यो धीरः, गतोऽस्तं तद्विधानतः ॥ ६ ॥ तस्मादतुलोपशमः, सिद्ध (सद) षिरभूदनाविलमनस्कः । परहितनिरतकमतिः, सिद्धान्तनिधि (रति महाभागः ।। १० ।।
-अथवाप्राचार्य हरिभद्रो मे, धर्मबोधकरो गुरुः । प्रस्तावे भावतो हन्त, स एवाद्ये निवेदितः ।। १५ ।।
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