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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ७३१ के उद्गार सिद्धर्षि को उपेक्षापूर्ण प्रतीत हुए । उनके हृदय को उद्योतन सूरि के उपेक्षापूर्ण उद्गार से प्राघात भी पहुँचा । अपने अन्तर्मन में उत्पन्न हुई उन सब प्रतिक्रियाओं को अपनी मुखमुद्रा पर लेशमात्र भी प्रकट न होने देने का प्रयास करते हए सिद्धर्षि ने कहा-"महामुने ! 'समराइच्चकहा' जैसे ग्रन्थरत्न की रचना करने वाले सूर्य के समान तेजस्वी विद्वान् पूर्वर्षि के समक्ष मैं तो केवल एक क्षुद्र खद्योत समान हैं। आप जैसे उदारमना मनीषि महर्षि का आशीर्वाद ही कोई फल ले आये तो कह नहीं सकता, अन्यथा मुझ जैसा अकिंचन तो है ही किस योग्य ?" सिद्धर्षि ने अपने गुरु भ्राता उद्योतन सूरि द्वारा प्रेरणा प्रदान के अभिप्राय से अभिव्यक्त किये गये उदगार को व्यंग के रूप में ले लिया था अतः अपने अन्तर्मन में उन्होंने एक हल्का सा आघात भी अनुभव किया। परन्तु इस घटना का परिणाम परम श्रेयस्कर सिद्ध हुआ। स्वयं सिषि के लिये भी और समस्त साधक वर्ग के लिये भी। “समराइच्च कहा" जैसे किसी एक उच्चकोटि के ग्रन्थरत्न की रचना की एक ऐसी अमिट ललक उनके अन्तर्मन में उद्भूत हुई कि वे अध्यात्म रस से प्रोतप्रोत एक महान् गद्यात्मक महाकाव्य की रचना में अहर्निश तल्लीन रहने लगे। ( अन्ततोगत्वा "उपमिति भव प्रपंच कथा" नामक एक ऐसे अध्यात्म ज्ञान से प्रोत प्रोत उच्चकोटि के ग्रन्थरत्न की रचना में सिद्धर्षि सफल हुए, जो साधक मात्र के लिये उसके चरम-परम लक्ष्य की प्राप्ति में प्रशस्त पथ प्रदर्शक प्रदीप के समान सच्चा सहायक और अन्त तक साथ निर्वहन करने वाला सच्चा सहृदय सखा है। सिद्धर्षि को अमर आध्यात्मिक कृति 'उपमिति भव प्रपंच कथा' को पढ़ लेने के पश्चात् सांसारिक कार्य-कलाप वस्तुतः "सव्वं विलवियं गीयं, सव्वं नट्ट विडंबियं । सव्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा ।। (उत्तराध्ययन सूत्र अ० १३) इस आगमवचन के अनुसार विषवत् त्याज्य प्रतीत होते हैं । ये सब नाचरंग सुख सुविधा-भोग, यह समग्र संसार एक अतिविशाल कारागार, ज्वालमालाओं से संकुल भीषण भट्टी अथवा भँवरजालों से परिव्याप्त ओर-छोर-विहीन, उद्वेलित अथाह सागर के समान प्रतीत होता है। . 'उपमिति भव प्रपंच कथा' नामक इस अनुपम प्राध्यात्मिक ग्रन्थरत्न की रचना से आध्यात्मिक क्षितिज में सिद्धर्षि की कीर्ति पराकाष्ठा को भी पार कर गई। सिद्धर्षि का नाम आध्यात्मिक जगत् में अमर हो गया। ___ वर्तमान में प्राचार्य सिद्धर्षि की निम्नलिखित चार रचनाएँ उपलब्ध होती हैं-- (१) उपमिति भव प्रपंच कथा, Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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