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________________ ७३० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ तपश्चरण करने लगे । निरन्तर कठोर तपश्चरण एवं प्रात्म-साधना में निरत रहतेरहते गर्गषि ने अन्त में आलोचनापूर्वक पादपोपगमन संथारा किया और समाधिपूर्वक आयु पूर्ण कर वे स्वर्गस्थ हुए। ___इधर (प्राचार्य पद पर आसीन होने के अनन्तर सिद्धर्षि जैन संघ का सर्वतोमुखी अभ्युत्थान करने में संलग्न हो गये। सिर्षि का युग शास्त्रार्थों का युग था। उस युग में अपने से भिन्न दर्शनों के दिग्गज विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर अपने दर्शन का सर्वोपरि वर्चस्व स्थापित करने की प्रवृत्ति यत्र-तत्र प्रसृति की पराकाष्ठा छूने लगी थी। सिद्धर्षि के बढ़ते हुए वर्चस्व से असूयाभिभूत हए अनेक दर्शनों के वादियों की ओर से आये दिन सिद्धर्षि के पास शास्त्रार्थ की चुनौतियां आने लगीं । सिद्धषि ने इस प्रकार की चुनौतियों को सहर्ष स्वीकार कर बड़े बड़े वादेच्छुक विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ किये । उन्होंने स्थान-स्थान पर अन्य दर्शनों के बड़े-बड़े दिग्गज विद्वान् वादियों, महावादियों एवं प्रतिवादियों को शास्त्रार्थों में पराजित कर आर्य धरा पर जिनशासन की विजय वैजयन्ती फहराई। उस समय के उच्च कोटि के व्याख्याता एवं अपराजेय वादी के रूप में उनकी कीर्ति दिग्दिगन्त में व्याप्त हो गई । उन्होंने धर्म प्रभावना के अनेक कार्य करवाये । उनके सम्बन्ध में चारों ओर जन-मानस में यह विश्वास घर कर गया था कि सिद्धर्षि को वस्तुतः वचनसिद्धि की महान् ऋद्धि प्राप्त हो गई है। प्राचार्य हरिभद्र को उद्योतन सूरि ने अपना "सिद्धतेण गुरु" और सिद्धर्षि ने "बोधकरो गुरु" लिखा है। इसो भ्रान्तिवश प्रभावक चरित्रकार ने उद्योतन सूरि से १२८ वर्ष पश्चात् हुए सिद्धर्षि को उनका गुरुभाई मान कर लिखा है कि कालान्तर में सिद्धषि ने सर्वप्रथम धर्मदास गरिण की तत्कालीन लोकप्रिय प्राध्यात्मिक कृति 'उपदेशमाला' पर वृत्ति की रचना कर साहित्य-सेवा का शुभारम्भ किया। युवा सिद्धर्षि ने कुवलयमालाकार अपने गुरुभ्राता उद्योतन सूरि को अपनी कृति 'उपदेशमाला-वृत्ति' दिखायी।) 'उपदेशमालावृत्ति' का अवलोकन करते समय उद्योतन सूरि को अपने लघु गुरुभ्राता सिद्धमुनि में एक समर्थ महाकवि की अप्रतिम प्रतिभा के दर्शन हुए। उद्योतन सूरि ने अपने गुरु भ्राता सिद्धर्षि को किसी अनुपम आध्यात्मिककृति की रचना के लिये प्रेरणा देने के अभिप्राय से 'उपदेशमाला वृत्ति' को उपेक्षाभाव से देखते हए कहा :-"सिद्ध ! अन्य विद्वानों की कृतियों पर रचना करने से कोई विशेष लाभ नहीं। "समराइच्च कहा" जैसे किसी उत्कृष्ट कोटि के स्वतन्त्र आध्यात्मिक ग्रन्थ की रचना के साथ-साथ रचनाकार का नाम भी अमर हो सकता है।" सिद्ध मुनि को आशा थी कि उनकी उस नवीन कृति की श्लाघा में दो शब्द उद्योतन सूरि के मुख से सुनने को मिलेंगे। इसके विपरीत उनके मुख से इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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