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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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प्रायश्चित ग्रहण करूंगा और जीवन भर गरुदेव के चरणों की शरण में ही रहँगा। इस ललितविस्तरा ग्रन्थ ने मेरे मतिविभ्रम को, कुतर्कजन्य व्यामोह को एवं मरे चित्त की भ्रान्ति को निर्मूल कर दिया है।"
सहसा सिद्धर्षि के अन्तस्तल से हरिभद्रसूरि के प्रति कृतज्ञता भरे उद्गार वायुमण्डल में गुंजरित हो उठे--"हरिभद्रसूरि हमारे महान् उपकारी हैं, वे ही मुझे धर्म का बोध कराने वाले मेरे धर्मगर हैं। उन्होंने अवश्यंभावी इस अनागत को पहले से ही जानकर मुझ जैसे पथभ्रष्ट को पुनः धर्मपथ पर आरूढ़ करने के लिये ही ललितविस्तरा नामक इस वृत्तिग्रन्थ की रचना की थी। जिन्होंने मेरे मानस में भरे मिथ्वात्व के हलाहल विष को भस्मीभूत कर मेरे मानस को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र रूपी रत्नत्रयी के अमृत से आपूरित कर दिया है, उन हरिभद्रसूरि को मेरा कोटिशः नमन है।"
ललितविस्तरा वृत्ति को पढ़ते हए सिद्धर्षि जब इस प्रकार विचार कर रहे थे, उसी समय गर्गषि उपाश्रय में लौटे और सिद्धर्षि को निनिमेष दृष्टि से ललितविस्तरावृत्ति को पढ़ने में निमग्न देखकर उन्हें अन्तर्मन में असीम आनन्द की अनुभूति हुई।
___गुरु के मुख से नैषेधिकी शब्द को सुनते ही सिर्षि सहसा उठे और गुरुचरणों पर अपना मस्तक रख पुनः-पुनः उनसे अपने अपराध की क्षमा मांगने लगे।
गर्षि ने पश्चात्ताप की ज्वाला में जलते हुए अपने शिष्य सिद्धर्षि को प्रोत्साहनपूर्ण मधुर वचनों से आश्वस्त किया। सिद्धर्षि के आग्रहपूर्ण अनुरोध पर गर्गर्षि ने उन्हें समुचित प्रायश्चित प्रदान किया। प्रायश्चित से आत्मशुद्धि कर लेने के पश्चात सिद्धर्षि ने सदा गुरुचरणों के सान्निध्य में रहते हुए विशुद्ध-निरतिचार संयम की पालना के साथ-साथ गुरुमुख से आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया। सिद्धर्षि में जिन-शासन-क्षितिज के उदीयमान दिव्य नक्षत्र के दर्शन करते हुए चतुर्विध संघ ने उनके प्रति अधिकाधिक प्रगाढ़ प्रीति श्रद्धा एवं भक्ति प्रदर्शित करना प्रारम्भ किया। उनके प्रति गुरु के वात्सल्य भाव और चतुर्विध संघ की श्रद्धा-भक्ति एवं प्रीति में उत्तरोत्तर अभिवृद्धि होती गई। सिद्धर्षि स्वल्प काल में ही जन-जन के प्रीतिपात्र बन गये।
आचार्य गर्गर्षि ने सिर्षि के लोकोत्तर गुणों से असीम आनन्द का अनुभव करते हुए कालान्तर में उन्हें अपने उत्तराधिकारी पट्टधर के रूप में स्वयं अपने करकमलों से चतुर्विध संघ के समक्ष प्राचार्य पद प्रदान कर-गच्छ के संचालन का कार्य-भार उनके सबल स्कन्धों पर रख दिया। अपने शिष्य शिरोमणि सिद्धर्षि को आचार्य पद पर आसीन कर गर्गर्षि वन में जा वहां मासोपवासादि घोर
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