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________________ वीर सम्बत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ७२७ अध्यापक, प्राचार्य और उस विद्यापीठ के सभी विद्वान् प्राचार्य एवं अधिष्ठाता तक बड़े चमत्कृत हुए। स्वल्पकाल में ही सिद्धर्षि ने समस्त बौद्ध वांग्मय का तलस्पर्शी अध्ययन सम्पन्न कर उसमें निष्णातता प्राप्त कर ली। सिद्धर्षि की गरगना बौद्ध दर्शन के मर्द्धन्य विद्वानों में की जाने लगी। सिद्धर्षि की सूच्यग्र मेघाशक्ति की महिमा विभिन्न बौद्ध विद्यापीठों में फैलते-फैलते सम्पूर्ण बौद्ध संघ में प्रसृत हो गई। विद्यापीठ के अधिष्ठाता बौद्धदर्शन के लब्धप्रतिष्ठ-पारगामी विद्वान, बौद्ध भिक्ष अथवा महावादी बौद्धाचार्यों में से जिस किसी ने भी सिषि के साथ साक्षात्कार किया, उससे किसी भी विषय पर चर्चा की, वे सभी सिद्ध के मुख से जटिल से जटिलतम गूढ़ तत्वों पर विशद् विवेचन एवं सुगम व्याख्या सुनकर आश्चर्याभिभूत हो अवाक रह गये । बौद्ध संघ के मूर्धन्य विद्वानों, संचालकों एवं प्राचार्यों ने मिलकर एकान्त में गूढ मन्त्रणा की :-"यह सिद्ध वस्तुतः चिन्तामणि तुल्य अद्भुत प्रतिभाशाली नररत्न है । वर्तमान में तो दूर-दूर तक इसके समान ऐसा अद्भुत प्रतिभा का धनी कोई व्यक्ति कहीं देखने सुनने में नहीं आया। यदि यह विद्वान किसी भी उपाय से बौद्ध-संघ में दीक्षित हो जाय तो बौद्ध संघ की सर्वतोमुखी उन्नति हो सकती है । अतः येन-केन प्रकारेण सत्कार-सम्मान, प्रोत्साहन, मदु-मंजुल संभाषण, वाग्जाल, अभिवर्द्धन आदि सभी भांति के उपायों से बौद्ध संघ में दीक्षित होने के लिये इसे आकर्षित किया जाय।" इस प्रकार गुप्त मन्त्रणा कर बौद्धाचार्यों, भिक्षुत्रों एवं विद्वानों मादि ने सिद्धर्षि को अपने जाल में फंसाने का इस चातुरी से प्रयास प्रारम्भ किया कि अन्त में सिद्ध के मस्तिष्क में मतिविभ्रम उत्पन्न हो गया और उसने बौद्ध धर्म की दीक्षा स्वीकार कर ली। सिद्ध ने उस विद्यापीठ का वह सर्वश्रेष्ठ सम्मान प्राप्त किया, जिसे सिद्ध से पूर्व कोई विद्वान् प्राप्त नहीं कर सका था। अब तो बौद्ध संघ ने सर्वसम्मति से सिद्ध के समक्ष प्रस्ताव रखा कि संघ उसे प्राचार्य पद पर अधिष्ठित करने के लिये प्रति ध्यग्र है प्रतः वह प्राचार्य पद प्रदान-महोत्सव के लिए अपनी स्वीकृति प्रदान करे। उसी समय सिद्ध को अपने गुरु के समक्ष की गई अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण हो पाया। उसने बौद्ध संघ से निवेदन किया- "यहां अध्ययनार्थ पाते समय मैंने अपने जैन गुरु के समक्ष प्रतिज्ञा की थी कि अध्ययन पूर्ण होते ही में एक बार प्रापकी सेवा में अवश्यमेव उपस्थित होऊंगा। सभी दर्शनों में प्रतिज्ञाभंग महापाप माना गया है अतः एक बार मुझे अपने गुरु के पास जाने की अनुमति प्रदान की जाय, यही मेरी महासंघ से प्रार्थना है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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