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________________ ७२६ ] | जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ महाव्रतों का पालन करते हुए जो पुण्य प्रर्जित किया है, वह तुम्हारा पुण्य नष्ट हो जायगा, तुम्हारी आज तक की हुई अध्यात्मसाधना व्यर्थ चली जायगी । ऐसी स्थिति में में तुम्हारे हित में यही उचित समझता हूं कि तुम्हें बौद्धों के शिक्षण संस्थान में जाकर बौद्ध-न्याय के अध्ययन का विचार अपने मन से निकाल देना चाहिये । यदि वहां जाने का विचार तुम्हारे मन से किसी भी प्रकार नहीं निकलता है तो तुम मेरे समक्ष यह प्रतिज्ञा करो कि बौद्धों के कुतर्कों से भ्रान्तचित्त हो जाने के उपरान्त भी तुम उनके संघ के सदस्य बनने से पूर्व एक बार मेरे पास अवश्य आओगे और हमारे प्रथम महाव्रत अहिंसा का जो प्रधान एवं सर्वप्रमुख उपकरण तथा अनिवार्य चिह्न यह रजोहरण है, इसे तुम स्वयं हमें ही लाकर समर्पित करोगे ।" अपने गुरु के मुख से इस प्रकार की बात सुनते ही सिद्धर्ष अपने दोनों करतलों से अपने दोनों कर्णरन्ध्रों को प्राच्छादित करते हुए बोले- शान्तं पापं, शान्तं पापं, अमंगलं प्रतिहतं प्रर्थात् पाप शान्त हो, अमंगल का नाश हो । गुरुदेव ! ऐसा कृतघ्न शिष्य कौन होगा जो आपके द्वारा उद्घाटित अपने ज्ञान चक्षुनों को परवादियों के विषधूम्र तुल्य कुतर्कों से मलिन कर अपनी सम्यग्दृष्टि को पुनः दूषित कर लेगा ? देव ! रजोहरण समर्पित करने की अन्तिम बात आपने मेरे लिये मेरे किस अपराध के उपलक्ष में कही है ? भगवन् ! कोई भी कुलीन व्यक्ति अपने गुरु को कभी नहीं छोड़ सकता । धतूरे के नशे के प्रभाव से भ्रान्तचित्त हुए मानव के समान यदि वहां जाने पर मुझे कदाचित् मतिविभ्रम हो भी गया, तो भी में आपके प्रदेश का पालन कर आपकी सेवा में अवश्यमेव उपस्थित होऊंगा, यह मेरी अटल प्रतिज्ञा है । सुनता भाया हूं कि बौद्धों का न्यायशास्त्र तर्कजाल से परिपूर्ण होने के कारण बड़ा ही दुर्गम, जटिल एवं दुरूह है । अतः बहुत दिनों से मेरे अन्तर्मन में यह अभिलाषा बलवती होती जा रही है कि मैं भी उनको पढू और देखू ं कि वे कैसे जटिल हैं । उनके अध्ययन से मुझे भी अपनी बुद्धि के सम्बन्ध में ज्ञात हो जायगा कि इसमें कितनी क्षमता है ।" इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने और अपने गुरु की अनुज्ञा प्राप्त हो जाने के पश्चात् सिद्धषि वहां से प्रस्थित हो अनुक्रमश: ग्रामानुग्राम विचरण करता हुप्रा बड़ी लम्बी यात्रा पूर्ण कर एक दिन महाबोधि नामक बौद्धों के एक विख्यात शिक्षा 'केन्द्र में पहुंचा । विद्यार्थी के रूप में उसने बौद्ध विद्यापीठ में प्रवेश प्राप्त कर बौद्ध दर्शन का अध्ययन प्रारम्भ किया। जिन जटिल न्याय-ग्रन्थों, तर्कशास्त्रों के गुत्थियों से भरे निगूढ़तम मर्म को उच्चकोटि के उद्भट विद्वान् भी समझने समझाने में बड़ी कठिनाई का अनुभव करते थे, उन गूढ़ विषयों-रहस्यों को अनायास ही हृदयंगम कर विशद् व्याख्या सहित समझने- समझाने की उस नवागन्तुक विद्यार्थी सिद्धषि की पूर्व प्रद्भुत् क्षमता एवं कुशाग्र बुद्धि को देख कर अनुक्रमश: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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