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वीर सम्बत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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शुभंकर की प्रार्थना स्वीकार कर प्राचार्यश्री ने कतिपय दिनों पश्चात् शुभ मुहूर्त में सिद्धर्षि को श्रमणधर्म की दीक्षा प्रदान की। गुरु ने अपने नवदीक्षित शिष्य सिद्ध को अपनी गुरु परम्परा के कतिपय प्राचार्यों के नाम सुनाते हुए कहा"वत्स ! सावधान होकर सुनो। पुरातन काल में भगवान महावीर के (युगप्रधानाचार्य परम्परा की पट्टावली के अनुसार) १८वें पट्टधर आर्य वज्रस्वामी नामक एक महान् प्रभावक युगप्रधानाचार्य हुए हैं, जो कि दश पूर्वो के ज्ञान के धारक थे। वीर नि. सं. ५८५ में आर्य वचस्वामी के स्वर्गस्थ होने पर उनके पट्टधर प्राचार्य वज्रसेन हुए। आचार्य वज्रसेन के नागेन्द्र, निर्वत्ति, चन्द्र और विद्याधर नामक चार मुख्य शिष्य थे । प्राचार्य वज्रसेन के उन चारों प्रमुख शिष्यों के नाम पर चार गच्छ प्रचलित हुए। निवृत्ति गच्छ में सूराचार्य नामक एक महान् प्राचार्य हुए। उन्हीं सूराचार्य का शिष्य में गर्ग ऋषि नामक प्राचार्य तुम्हारा दीक्षा गुरु हूं। प्रमाद से दूर रहकर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पंच महाव्रतों का तुम्हें जीवन-पर्यन्त विशुद्ध रूपेण पालन करना है।"
सिद्ध मुनि ने अपने गुरु गर्गषि की आज्ञा को सविनय शिरोधार्य कर उग्र तपश्चरण के साथ-साथ बड़ी ही निष्ठापूर्वक प्रागमों का अध्ययन करना प्रारम्भ किया। कुशाग्र बुद्धि के धनी सिद्ध मुनि ने अपेक्षित समय से पूर्व ही न्याय, व्याकरण, ज्योतिष, गणित, नीति आदि सभी विद्यामों में निष्णातता प्राप्त कर ली और वे अंग शास्त्रों के विशिष्ट मर्मज्ञ विद्वान् बन गये। विभिन्न दर्शनों के तर्कग्रन्थों का अध्ययन कर न्याय शास्त्र पर विशिष्ट पाण्डित्य प्राप्त कर लेने के पश्चात् सिद्धर्षि के मन में विचार उत्पन्न हुमा-"अपने और प्रन्यान्य प्रायः सभी धर्मों के तर्कग्रन्थों का अध्ययन तो मैंने कर लिया किन्तु बौद्ध धर्म के न्यायशास्त्र तो केवल बौद्धबहुल सुदूरस्थ प्रान्त के बौद्ध विद्यापीठ में ही पढ़ाये जाते हैं। अतः मुझे वहां जाकर बौद्ध न्याय का भी अध्ययन कर अपने ज्ञान में और वृद्धि करनी चाहिये।"
इस प्रकार विचार करते-करते सिद्धर्षि के मन में बौद्ध न्याय का अध्ययन करने की उत्कट अभिलाषा उत्पन्न हुई । एक दिन उन्होंने अपने गुरु की सेवा में उपस्थित हो उनके समक्ष, अपनी बौद्ध न्याय पढ़ने की अभिलाषा प्रकट करते हुए सुदूरस्थ बौद्ध विद्यापीठ में अध्ययनार्थ जाने की अनुज्ञा प्रदान करने की प्रार्थना की।
अपने निमित्त ज्ञान का उपयोग लगाकर गर्गषि ने अपने शिष्य सिद्धषि से कहा -- "वत्स ! विद्याध्ययन के विषय में सन्तोष न करना तो वस्तुतः शुभ लक्षण है किन्तु तुम्हारे इस प्रस्ताव के सम्बन्ध में मुझे स्पष्टत: यह प्राभास हो रहा है कि बौद्धों के कूतों एवं हेत्वाभासों से तुम्हारी मति भ्रान्त हो जायगी। उसका परिणाम यह होगा कि अपने धर्म के प्रति तुम्हारी आस्था लुप्त हो जायगी और बौद्ध धर्म के प्रति तुम प्रास्थावान बन जाओगे। इससे आज तक तुमने पंच
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