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________________ ७२४ 1 | जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ चाहिये। लोगों में हमारी गणना न केवल कोटिध्वज श्रीमन्त के रूप में अपितु असंख्य ध्वजाधिपति श्रीमन्त के रूप में की जाती है। थोड़ा इस बात पर तो विचार करो कि यदि हमारे घर के एक मात्र दीपक तुम्हीं घर-बार का त्याग कर अपरिग्रही साधु बन जाओगे तो इस असंख्य ध्वज-मिता सम्पदा का उपभोग कौन करेगा? इसका उपयोग क्या होगा ? अतः उठो, घर चलो और सत्पुरुषों द्वारा श्लाघनीय सदाचार के मार्ग पर चलते हुए अपार लक्ष्मी का अपनी इच्छानुसार उपभोग करो, दान-पुण्य आदि उभयलोक कल्याणकारी कार्यों में इसका उपयोग करो। तुम्हारी ममतामूर्ति माता के तुम नयनतारे हो । नवोढ़ा कुलवधु, जिसने अभी-अभी यौवन की देहली पर पदार्पण किया है, वह भी अभी तक संततिविहीन ही है। उन दोनों के तुम्ही एक मात्र , जीवनाधार हो । मैं तो अब वृद्ध हो चुका हूं। मेरा क्या भरोसा, न जाने किस क्षण सदा के लिये अांखें निमीलित कर अज्ञात लोक की ओर प्रयारण कर जाऊं । अत: अतुल वैभव का, सांसारिक सुखों का तुम उपभोग करो। यदि तुम जन्म-मरण के चक्र से सदा के लिये छुटकारा चाहते हो तो अपने वंश की परम्परा को अक्षण्ण रूप से चलाने वाली संतति के उत्पन्न हो जाने के पश्चात् श्रमण धर्म में दीक्षित हो जाना।" सिद्धि को ही अपने जीवन का एक मात्र लक्ष्य बना चुकने वाले सिद्ध को मोह, ममता, प्रलोभन आदि सांसारिक प्रपंच उसके दृढ़ निश्चय से किंचित्मात्र भी विचलित नहीं कर सके । सिद्ध ने अपने पिता से कहा ---"तात ! इन सांसारिक प्रपंचों में फंसा रहने के कारण मैं भी अन्य संसारी जीवों की भांति अनन्त काल से कराल काल की विकराल चक्की में निरन्तर पिसता आ रहा हूं। अब में क्षरण भर के लिये भी इन सांसारिक प्रपंचों में नहीं फंसना चाहता। मेरा मन अब ब्रह्म में, प्रात्मस्वरूप.में लीन हो बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी बन चुका है। अब किसी भी प्रकार के लौकिक प्रलोभन का मेरे अन्तर्मन पर किंचित्मात्र भी प्रभाव होने वाला नहीं है। अब तो आपसे एक ही विनम्र प्रार्थना है कि आप इन गुरुदेव से यह प्रार्थना कीजिये- "करुणासिन्धो ! कृपा कर मेरे पुत्र इस सिद्ध को श्रमणधर्म की दीक्षा प्रदान कर सदा के लिये अपनी शरण में लेने का अनुग्रह कीजिये।" इस प्रकार सिद्ध ने पुनः पुनः अपने पिता से यही अनुरोध किया। शुभंकर को जब पूर्ण विश्वास हो गया कि उसके पुत्र के मन में न तो किसी प्रकार का आक्रोश है और न रोष ही, एवं उसका अन्तर्मन पूर्णतः वैराग्य के अमिट रंग में रंग गया है, संसार की कोई शक्ति उसको अब योगमार्ग से मोड़ कर भोगमार्ग में प्रवृत्त नहीं कर सकती, तो अन्य कोई उपाय न देखकर शुभंकर ने आचार्यदेव के चरणों में प्रणिपातपूर्वक प्रार्थना की-"विश्वबन्धो ! प्राचार्यदेव ! कृपा कर आप मेरे इस मुमुक्ष पुत्र सिद्ध को श्रमणधर्म में दीक्षित कर सदा के लिये अपनी चरण-शरण में ले लीजिये।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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