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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ७२३ में शरण दीजिये। इस दास के सिर पर अपना वरद हस्त रख कर कृतकृत्य कीजिये।" सिद्ध द्वारा दृढ़ संकल्प के साथ अभिव्यक्त किये गये प्रान्तरिक उद्गारों एवं उसकी भावाभिव्यंजना की शैली से प्राचार्यश्री अतीव चमत्कृत हो मन ही मन बड़े प्रमुदित हुए। उन्होंने कहा-"वत्स ! हम कोई भी बिना दी हुई वस्तु ग्रहण नहीं करते । हमारे पास संयम लेने के लिये तुम्हारे माता-पिता-पत्नी की स्वीकृति आवश्यक है। तब तक के लिये धैर्य रखो।" प्राचार्यदेव के आदेश को शिरोधार्य कर सिद्ध कुमार उपाश्रय में ही रह गया। सुयोग्य शिष्य की उपलब्धि की आशा में प्राचार्यश्री को आन्तरिक प्राह लाद का अनुभव हुआ। उधर प्रातःकाल होने पर रात्रि की सारी घटना का हाल अपनी पत्नी से सुनकर शुभंकर शीघ्र ही अपने घर से बाहर निकला और अपने पुत्र को ढूढ़ता हुआ उसी उपाश्रय में आया तो शान्ति के पीयूष से सद्यस्नात की भांति अपने पुत्र को शान्त-दान्त मुद्रा में वहां बैठे देखा। उसने सिद्ध के समीप जा कर कहा-पुत्र ! यदि प्रारम्भ से ही मैं तुम्हें इन महापुरुषों के सत्संग में देखता तो मुझे अत्यन्त आनन्द होता किन्तु साधुओं के प्राचार से बिल्कुल विपरीत द्य तक्रीड़ा के व्यसनी का संगम मुझे सूर्य और केतु के संयोग के तुल्य दुखद प्रतीत हो रहा है । चलो अब घर चलो, तुम्हारी माता अतीव उत्कट उत्कण्ठापूर्वक तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है । तुम्हारे चले आने के कारण तुम्हारी माता शोकांग्नि में संतप्त हो रही है।" पिता की बात सुन कर सिद्ध ने कहा-"तात ! अब तो भवाब्धिपोत तुल्य तारण-तरण समर्थ गुरुदेव के चरणों में मेरा चित्त लीन हो गया है। मैं अब जीवन-पर्यन्त इनके चरणों की शरण में रह कर घोरातिघोर दारुण दुःखों से ओतप्रोत संसार सागर से पार होने का प्रयास करूंगा। अतः अब मैं घर नहीं लौटगा। सार तत्व को समझ लेने के पश्चात् मुझे उस घर से अब कोई प्रयोजन नहीं रह गया है। अब तो इन समर्थ गुरुदेव के चरणों में श्रमणधर्म की दीक्षा अंगीकार करने के लिये मेरा मन व्यग्र हो रहा है । अब आप अपने मन से मेरे प्रति मोह को सदा के लिये पूर्णतः दूर कर दीजिये। माता ने मुझे आदेश दिया था कि जहां रात भर द्वार खुले रहते हों, वहीं चले जाओ। मां की आज्ञा की अनुपालना में पुराकत विपुल पुण्य के प्रताप से मैं संसार के सर्वाधिक उपयुक्त स्थान पर अब आ गया हूं, तो अब जीवन भर इन महापुरुषों की चरण-शरण में ही रहूंगा। जीवन-पर्यन्त अपनी जननी की उस महाकल्याणकारिणी आज्ञा का पालन करता रहूंगा, इसी से मेरी कुलीनता निष्कलंक एवं अक्षत बनी रह सकेगी।" अपने अन्तस्तल में अगाध पीड़ा का अनुभव करते हए शुभंकर श्रेष्ठि ने कहा-"पुत्र ! इस प्रकार का विचार तुम्हें अपने मन में भूल कर भी नहीं लाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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