SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 780
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ इसे समझ कर प्राचार्य ने सिद्ध को मधुर सम्बोधन से सम्बोधित करते हुए कहा-सौम्य ! हमारे पास तो वही रह सकता है जो हमारे जैसा वेष धारण कर ले । श्रमणधर्म अंगीकार किये बिना कोई भी हमारे पास नहीं रह सकता और तुम्हारे जैसे स्वेच्छाचारी के लिये श्रमणधर्म को अंगीकार करना बड़ा कठिन कार्य है। कन्दर्प के दर्पका पूर्णरूपेण दलन कर दुश्चर घोर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना, सब प्रकार के परिग्रह का परित्याग कर मधुकरी से-जीवन-निर्वाह करना, शरीर के अंग-प्रत्यंग में पीड़ा उत्पन्न कर देने वाला केशलुंचन करना, बालुकापिण्ड के भक्षण के समान नितान्त निस्स्वादु संयम का पालन करना, ग्रामकण्टक दुष्ट पुरुषों के तीखे व्यंगपूर्ण दुस्सह्य कटुवचन शान्त समभाव से सुनना, लोहे के चने चबाने तुल्य २२ प्रकार के परीषहों को हर्षामर्षविहीन शान्त चित्त से सहन करना, उग्र चपश्चरण करना, ये सब तलवार की धार पर चलने के समान दुश्चर, दुरूह और दुस्साध्य हैं।" आचार्य श्री की बात ध्यानपूर्वक सुनने के पश्चात् सिद्ध ने संयत, सुदृढ़ एवं विनम्र स्वर में निवेदन किया-"भगवन ! मैं विगत कुछ समय से दुर्व्यसन में लिप्त हूं। जो लोग दुर्व्यसनों के दास बन जाते हैं, वे लोग अन्ततोगत्वा चोरी आदि घोर अपराध करना प्रारम्भ कर देते हैं। उनके अपराधों के दण्ड के रूप में राज्य द्वारा उन लोगों के नाक, कान, बाहु-युगल और चरण-युगल तक काट दिये जाते हैं। उनके घर वाले उन्हें घर से निकाल देते हैं। इस प्रकार अपंग, असहाय, और अवश बने वे लोग भीख मांग कर अपनी उदरपूर्ति करते हैं। देव ! दुर्व्यसनियों की अवश्यंभावी इस प्रकार की दयनीय दुरवस्था की तुलना में भी क्या आपके द्वारा बताये गये श्रमणधर्म की परिपालना में आने वाले कष्ट अधिक दुस्सह्य एवं दारुण हैं ? संयम तो वस्तुतः विश्ववन्ध है। मेरी मान्यता है भगवन् ! कि दुर्व्यसनियों के जीवन में अवश्यंभावी उन दुःखों की तुलना में तो संयम जीवन में होने वाले कष्ट नगण्य एवं नहीं वत् हैं। इसके उपरान्त भी सबसे बड़ी बात यह है कि दुर्व्यसनजन्य उन दारुण दुखों को इहलोक में भोग लेने के पश्चात परलोक में भी दुर्व्यसनियों का दुःखों से छुटकारा नहीं होता। परलोक में तो उन्हें इहलोक के उन कष्टों से भी अधिक घोरातिघोर दारुण दुःख भोगने पड़ते हैं। इसके विपरीत संयम-जीवन के स्वेच्छापूर्वक वरण किये गये दुःखों-कष्टों-परीषहों को समभावपूर्वक सहन कर लेने के पश्चात् या तो साधक उत्कट साधना द्वारा सदासर्वदा के लिये सब प्रकार के दुःखों का उसी भव में अन्त कर शाश्वत-अव्याबाघ अनन्त सुख का अधिकारी हो जाता है अथवा दिव्य देव सुखों एवं महद्धिक मानवभव के सुखों को भोग कर दो, तीन या इने-गिने भवों में ही शुद्ध-बुद्ध-मुक्त अजरामर पद को प्राप्त कर लेता है । भगवन् ! मैं अब सब प्रकार के दुःखों का सदा-सदा के लिये अन्त करने का दृढ़ संकल्प कर चुका हूं। अतः इस दीन पर दया करके इसे श्रमण धर्म की दीक्षा देकर अपने इन सकल संताप, पाप, भवतापहारी चरण-कमलों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy