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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती भाचार्य ] [ ७२१ साधना तथा ईश्वर की उपासना में अहर्निश लीन रहने वाले महान् सन्त और कहां विषय-कषायों का कृमि एवं दुर्व्यसनों का दास मैं । ये महापुरुष अभ्युत्थान के पथ पर आरूढ़ हो अमृतत्व एवं अक्षय शान्ति की प्राप्ति के लिये मक्ति पथ पर अग्रसर हो रहे हैं और कहां मैं विषय-कषायों के हलाहल विषपान से उन्मत्त बना अधःपतन के गर्त में बड़े तीव्र वेग से गिरा जा रहा हूं। ये महापुरुष शान्ति, शील, संयम एवं सदाचार के रास्ते पर चल कर मानव जन्म को सफल बना रहे हैं और मैं दुर्व्यसनों का क्रीत दास बना अपने मानव जन्म को न केवल विफल ही बना रहा हूं, अपितु मिट्टी में मिला रहा हूं । धिक्कार है मुझे जो मैं दुर्व्यसनों के घोर दलदल में फंस कर अपने इहलोक में अपशय का और परलोक में दुस्सह्य दारुण दु:खों का भाजन बनने का उपक्रम कर रहा हूं। यह मेरे पुराकृत किसी महान् पुण्योदय का ही फल है कि आज मुझे इन तरण-तारण, स्व-पर कल्याण में रत महापुरुषों के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । आज का दिन वस्तुतः मेरे लिये महान् शुभ दिन है, जबकि मां का कोप भी मेरे लिये इस रूप में वरदान स्वरूप सिद्ध हो रहा है।" इस प्रकार चिन्तन करता हुआ सिद्धकुमार पट्ट पर विराजमान प्राचार्य के समक्ष पहुंचा और उसने उन्हें प्रगाढ़ श्रद्धा-भक्ति के साथ वन्दन नमन किया। प्राचार्य ने आशिषमुद्रा में करतल उठाते हुए उससे प्रश्न किया-"सौम्य ! तुम कहां के रहने वाले हो, इस वेला में तुम्हारा यहां प्रागमन कैसे हुआ ?" सिद्ध ने सब कुछ यथातथ्यरूपेण स्पष्टतः प्रकट करते हुए कहा- "भगवन् ! मैं इस नगर के श्रेष्ठि शुभंकर का इकलौता पुत्र हैं। मेरा नाम सिद्ध है। मैं द्य तक्रीड़ा के व्यसन में इतना अधिक लिप्त हो गया कि रात्रि में बड़ी देर से घर आने लगा। सदा तो मेरी पत्नी गह के मुख्यद्वार खोल देती थी किन्तु प्राज जब मैंने द्वार खटखटाये तो माता ने द्वार खोलने से मना कर दिया और मुझे कहा कि जहां रात्रि में द्वार खुले रहते हों, उसी घर में चला जा। इस भवन के द्वार खुले देख कर माता के कथन की अनुपालना करता हुआ मैं यहां आ गया। यहां आपके दर्शन कर मैं कृतकृत्य हो गया। अब आज से लेकर जीवन-पर्यन्त मैंने आपके चरणों की शरण में रहने का दृढ़ निश्चय कर लिया है। संसार सागर से पार लगाने वाले महान् जलपोत तुल्य आपको पाकर अब मैं अन्यत्र कहीं नहीं जाना चाहता। संसार में भला ऐसा कौन मुर्ख होगा जो नाव के मिल जाने पर भी समुद्र को पार नहीं करना चाहेगा।" सिद्ध के विनय, व्यक्तित्व और वाग्मिता को देख कर प्राचार्य ने जब ज्ञानोपयोग लगाया तो वे मन ही मन बड़े प्रसन्न हुए। उन्हें नवागन्तुक युवक सिद्ध में जिनशासन के भावी महान् प्रभावक के सभी लक्षण दृष्टिगोचर हुए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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