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________________ ७२० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ " माता की बोली सुनकर सहमे हुए स्वर में सिद्ध ने उत्तर दिया :- "सिद्ध ।” माता ने कुछ आक्रोश भरे स्वर में पूछा - "कौन सिद्ध ? कैसा सिद्ध ? ऐसे होते हैं सिद्ध ?" विनम्र स्वर में सिद्ध ने उत्तर दिया- मां ! यह तो मैं तुम्हारा पुत्र सिद्ध हूँ ।" पुत्र को शिक्षा देने के लिये उसने किंचित् कठोर स्वर में कहा - " मैं नहीं जानती स्वेच्छा विहारी उस सिद्ध को, जिसके घर श्राने-जाने का कोई समय निश्चित नहीं । यह भी कोई समय है इतनी रात गये घर लौटने का ? गृहस्थों के घरों के द्वार रात भर खुले नहीं रह सकते ।" पुत्र ने अपने अपराध को स्वीकार करने के स्वर में माता से प्रश्न किया तो, इस समय में अन्यत्र कहाँ जाऊँ माँ ?" भाज यदि द्वार नहीं खोलूंगी तो मेरा पुत्र भविष्य में सदा समय पर श्राया करेगा, यह विचार कर मां ने उत्तर दिया- "चला जा वहीं, जहां रात में द्वार खुले रहते हों । " इसे मां के प्रदेश के रूप में ग्रहण करते हुए सिद्ध तत्काल बिना कुछ बोले ही अपने घर के द्वार से मुड़कर श्रीमाल नगर के मुख्य मार्ग पर दोनों पार्श्व के घरों की ओर दृष्टिनिपात करता हुआ भागे की ओर बढ़ने लगा । उसने देखा कि सभी घरों के द्वार बन्द हैं, एक भी घर का द्वार खुला हुना नहीं है। जहां वह मां के प्रादेश के अनुसार जा सके । खुले द्वार वाले घर की खोज में विभिन्न मार्गों, वीथियों और रथ्यानों में भ्रमण करते करते सिद्ध की दृष्टि एक ऐसे घर पर पड़ी, जिसके द्वार पूर्णतः खुले थे । माता के प्रदेश के अनुरूप यही वह घर है, जहां वह जा सकता है । इस प्रकार विचार कर सिद्ध ने उस घर में प्रवेश किया। वह एक जैन उपाश्रय था । वहां उसने देखा कि उसमें एक जैनाचार्य अपने श्रमरण शिष्यों के साथ विराजमान हैं। सभी मुनि जागृत एवं विविध प्राध्यात्मिक साधनात्रों में निरत थे । सिद्धकुमार ने देखा कि कतिपय मुनि पट्ट पर पद्मासन से प्रासीन अपने गुरु के सम्मुख विनयावनत हो जिज्ञासु मुद्रा में बैठे हुए अपनी तत्वज्ञान पिपासा को शान्त कर रहे हैं, कतिपय मुनि स्वाध्याय में लीन हैं, कतिपय उत्कटासन लगाए हुए तो कतिपय गोदुहासन लगाये हुए प्रात्मचिन्तन में तल्लीन हैं । उन शान्त - दान्त मुनियों के दर्शनमात्र से ही सिद्धकुमार के अन्तस्तल में अनिर्वचनीय शान्ति का झरना फूट पड़ा। उसे अनुभव हुआ, कितना अन्तर है इन मुनियों के और उसके जीवन में। वह सोचने लगा -" कहां तो ये शील एवं संयम की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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