SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 777
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ७१६ रात्रिजागरण और चिन्ता के फलस्वरूप सिद्ध की पत्नी उत्तरोत्तर कृष से कृषतर होती गई और अस्वस्थ रहने लगी। ___ एक दिन गृहस्वामिनी लक्ष्मी ने अपनी पुत्रवधु की इस प्रकार की स्थिति देखकर चिन्ता प्रकट करते हुए पूछा :-"पुत्रि! तुम इन दिनों कृष क्यों होती जा रही हो? तुम्हारी सौम्य एवं मनोहारी मुखमुद्रा पर चिन्ता की रेखाएं क्यों उभरती जा रही हैं ? तुम्हें किस बात का दुःख है, निस्संकोच होकर स्पष्ट कहो।" सिद्धकुमार की पत्नी ने विनम्र स्वर में उत्तर दिया :-"मां ! आपकी ममतामयी छत्रछाया में मुझे दुःख किस बात का हो सकता है।" उत्तर देते-देते उसका गला भर आया और अन्तस्तल के उद्वेग को रोकने का पूर्ण प्रयास करने पर भी उसकी प्रांखों से हठात् अश्र कण ढलक पड़े। प्रश्रों को छिपाने का प्रयास करते हुए उसने अपना सिर झुका लिया। सास ने बड़े दुलार से अपनी पुत्रवधु को अपने वक्षस्थल से लगा लिया और दुलार से उसकी पीठ सहलाते हुए पूछा :- "बेटी! कहीं अपनी मां से भी भला कोई बात छुपाई जाती है । स्पष्ट कहो, तुम्हें किस बात का दुःख है, किस बात की चिन्ता है ?" एक बार तो शिद्ध कुमार की पत्नी के मानस में बड़े प्रबल वेग से ज्वार उठा किन्तु तत्क्षण अपने आपको सम्हालते हुए उसने अपनी सास से कहा :"मां! दुःख और चिन्ता की तो कोई बात नहीं, किन्तु अापके सुपुत्र रात्रि में बाहर से बड़ी देर से प्रायः उषा वेला में घर लौटते हैं। मुझे रात भर जागृत रहते हुए उनकी प्रतीक्षा करनी पड़ती है। निरन्तर रात्रि-जागरण के कारण मैं प्रापको उदास और कृष प्रतीत हो रही हूं। इसके अतिरिक्त अन्य कोई बात नहीं है।" ___ सास ने कहा :-"अच्छा ! तुमने पहले मुझे इस बात से अवगत क्यों नहीं किया ? खैर, मैं अब समुचित प्रबन्ध कर दूंगी । तुम निश्चिन्त रहो।" सायंकाल सब प्रकार के प्रावश्यक कार्यों से निवृत्त होने के अनन्तर गृहस्वामिनी ने अपनी पुत्रवधु को निश्चित होकर सो जाने का निर्देश दिया और स्वयं गृह के मुख्य द्वार के समीप वाले कक्ष में बैठ कर अपने पुत्र के घर लौटने की प्रतीक्षा करने लगी। रात्रि के चतुर्थ चरण का कुछ समय व्यतीत होने पर गृहस्वामिनी लक्ष्मी को प्रवेश द्वार के समीप अपने पुत्र के पदचाप की ध्वनि सुनाई पड़ी। वह कुछ क्षण मौन साधे बैठी रही । गृह द्वार खोले जाने की प्रार्थना किये जाने पर उसने घनरव गम्भीर स्वर में पूछा__"इस समय कौन है, यह द्वार पर? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy