SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 775
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भ० महावीर के ४६वें एवं ४७वें पट्टधर क्रमशः प्राचार्य हरिशर्म स्वामी और कलशप्रभ तथा ३६वें युगप्रधानाचार्य ज्येष्ठांगगरिण के समय के महाप्रभावक प्राचार्य सिद्धर्षि प्रनीत काल से हम सुनते आ रहे हैं कि पारस के संसर्ग से लोहा स्वर्ण हो जाता है, पर प्रत्यक्ष में न किसी ने पारस को देखा है और न स्वर्ण में परिणत होते लोहे को। परन्तु सन्त-समागम से, सत्संग के प्रताप से साधारण से साधारण जन भी जन से जिन, मानव से महात्मा, प्रात्मा से परमात्मा और नर से नारायण बन जाता है । इसके न केवल एक अपितु अनेकानेक ज्वलन्त प्रमारण हमें सर्वश-प्ररूपित भागमों, महान् प्राचार्यों द्वारा प्रणीत धर्मग्रन्थों के माध्यम से और प्रत्यक्ष भी उपलब्ध हो जाते हैं। अध्यात्म-विद्या के उच्चकोटि के महाकवि एवं महान् प्राचार्य सिर्षि का जीवन-चरित्र सत्संग एवं सन्त-समागम के अद्भुत चमत्कार, अचिन्त्य प्रताप एवं अनुपम प्रभाव का एक अनूठा उदाहरण है कि एक जुमारी (द्यूतक्रीड़क) सन्तसमागम के प्रभाव से किस प्रकार अध्यात्म-सम्पदा की अक्षय-अनमोल निषि, रत्नत्रयी का एक उत्तम कोटि का स्वामी बन गया। सिद्धर्षि का जन्म विक्रम की पाठवीं शताब्दी के प्रारम्भकाल के पास-पास गुजरात राज्य की तत्कालीन राजधानी श्रीमाल (वर्तमान भीनमाल) नामक ऐतिहासिक नगर में एक नीतिनिपुरण एवं धर्मनिष्ठ अमात्य कुल में हमा। पापके पितामह सुप्रभ (अपर नाम सुरप्रभ) विशाल गुजरात राज्य के प्रधानामात्य थे। महामन्त्री सुरप्रभ के दत्त और शुभंकर नामक दो पुत्र थे। उन दोनों भाइयों की तत्कालीन गुजरात राज्य के विपुल वैभव सम्पन्न श्रीमन्तों के साथ-साथ महादानियों में गणना की जाती थी। दत्त के पुत्र का नाम माघ और शुभंकर के पुत्र का नाम सिद्ध था । महाकवि माघ और सरस्वती के परमोपासक धारापति भोज के बीच परस्पर प्रगाढ़ मैत्री थी। माष ने महाकवि के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की। उसने "शिशुपाल-वध" नामक उत्कृष्ट कोटि के महाकाव्य की रचना कर महाकवियों में मूर्धन्य स्थान प्राप्त किया। महाकवि माष के प्रसाद, उपमालंकार, पदलालित्य एवं गम्भीर अर्थ गौरव-गरिमा मादि गुणों की महिमा में किसी कवि द्वारा रचित निम्न श्लोक काव्यरसिकों का सुदीर्घ काल से ही कण्ठाभरण बना हुमा है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy