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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ दिगम्बर परम्परा के अनुयायियों के प्राचार्य रामसेन ने निष्पिच्छक (पिच्छी निषेधक) माथुरसंघ की स्थापना की।
माथुरसंघ के प्रतिष्ठापक आचार्य रामसेण ने जो दूसरी क्रान्तिकारी मान्यता प्रचलित की, उस सम्बन्ध में प्राचार्य देवसेन ने अपनी कृति “दर्शनसार" में लिखा है
सम्मत्त-पयडि-मिच्छत्तं, कहियं जं जिरिंगद-बिबेसु । अप्प-परिणिट्ठिएसु य, ममत्तबुद्धीए परिवसणं ।। ४१ ॥ एसो मम होउ गुरु, अवरो पत्थित्ति चित्तपरियरणं ।
सग-गुरु-कुलाहिमाणो, इयरेसु वि भंगकरणं च ॥ ४२ ॥ अर्थात् माथुरसंघ की स्थापना करने वाले प्राचार्य रामसेण ने किसी भी जिन-प्रतिमा में जिनेश्वर भगवान की कल्पना करने को और इस प्रकार की कल्पना के साथ प्रतिमा को वन्दन करने, उसकी अर्चा-पूजा करने आदि क्रियाकलापों को सम्यक्त वप्रकृति मिथ्यात्व की संज्ञा दी।
इस प्रकार आडम्बरपुर्ण साकार-उपासना की ओर उमड़े हुए जनमानस को प्राचार्य रामसेन ने निरंजन निराकार की आध्यात्मिक उपासना की दिशा में मोड़ देने का प्रयास किया।
प्रा. देवसेन द्वारा किये गये उपरिलिखित उल्लेख के अनुसार माथुर संघ द्वारा केवल आध्यात्मिक उपासना को ही महत्व दिये जाने के साथ-साथ माथुर संघ के अनुयायियों में इस प्रकार की वृत्ति भी उत्पन्न की गई कि वे केवल अपने प्राचार्य अथवा संघ द्वारा निर्मापित वसतियों-धर्मस्थानों में ही निवास करें, अन्य किसी संघ अथवा आचार्य द्वारा निर्मापित वसतियों में न ठहरें। आचार्य देवसेन ने माथुर संघ के अनुयायियों के मानस में घर की हुई इस मनोवृत्ति का भी उल्लेख किया है कि वे अपने गुरु को ही सर्वश्रेष्ठ माने, अन्य किसी को नहीं। माथुर संघ से इतर अन्य सभी संघों और उन इतर संघों के प्राचार्यों प्रादि को मान्य नहीं करते हुए हुए. उनका बहिष्कार करने और केवल माथुर संघ के साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका और धर्मस्थानों को अपना समझने का ममत्वभाव माथुर संघ के सूत्रधार आचार्य रामसेन ने अपने अनुयायियों में उत्पन्न किया, इस प्रकार का उल्लेख भी प्राचार्य देवसेन ने "दर्शनसार" की ऊपर उद्धत गाथा सं० ४२ में किया है।
. आचार्य रामसेन ने साधु के लिये पिच्छी रखने का निषेध करने के साथ साथ प्रतिमा में जिनेन्द्र की कल्पना कर उस प्रतिमा की पूजा-अर्चा, वन्दना आदि क्रियाओं को सम्यक्त्वप्रकृतिमिथ्यात्व की संज्ञा दी इसी कारण नीतिसार की निम्नलिखित गाथा में अन्य कतिपय संघों के साथ माथुर संघ को भी जैनाभास संघ बताया गया है--
गोपुच्छक: श्वेतवासो, द्राविड़ो यापनीयकः । निष्पिच्छकश्चेति पंचते, जैनाभासाः प्रकीर्तिताः ।।
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