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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
[७१३ इन प्राचार्य अभयदेव सूरि के पट्टधर शिष्य का नाम धनेश्वर सरि था । धनेश्वर सूरि त्रिभुवनगिरि नामक राज्य के कर्दम नामक राजा थे। प्रभावक चरित्रकार ने इनके सम्बन्ध में अपने ग्रन्थ प्रभावक चरित्र की प्रशस्ति में इस प्रकार लिखा है :
त्रिभुवनगिरि स्वामी श्रीमान् कर्दम भूपति स्तदुप समभूत् शिष्य : श्रीमद्वनेश्वर संज्ञया । प्रजनि सुगुरुस्तत्पट्टऽस्मात् प्रभूत्यवनिस्तुत : तदनु विदितो विश्वे गच्छ : स राज पदोत्तर : ॥५॥
इन कर्दम राज के सारे शरीर में अनेक विषैले फफोले उत्पन्न हो गये। अनेक कुशल वैद्यों आदि से अनेक प्रकार के उपचार करवाये गये । किन्तु उनका वह भीषण रोग नाममात्र के लिये भी शान्त नहीं हुआ । उनके शरीर में इन फफोलों के कारण प्रतिपल ऐसी भीषण असह्य जलन होती थी मानो उनके शरीर पर जाज्वल्यमान अंगारे रक्खे हों । एक दिन त्रिभुवनगिरि में राजर्षि अभयदेव सूरि का प्रागमन हुआ। उनके तपश्चरण, त्याग और ज्ञान की महिमा कर्दमराज ने भी सुनी । वह येन केन प्रकारेण तर्क पंचानन अभयदेव सरि के दर्शनार्थ उनके विश्राम-स्थल पर गया। वह उनके प्रभावशाली सौम्य व्यक्तित्व को देखकर बड़ा प्रभावित हुआ और उसे ऐसा अनुभव हुआ कि उसकी पीड़ा में, जलन में थोड़ी शान्ति पाई है । कर्दमराज ने विचार किया कि जिस महापुरुष के दर्शन मात्र से भीषण जलन थोड़ी बहुत मन्द हुई है तो अहर्निश इनके संसर्ग में रहने अथवा इनके चरणोदक को अपने शरीर पर छिड़कने से निश्चित रूप से यह व्याधि पूर्णत: निर्मूल हो सकती है । कर्दमराज ने तत्क्षण प्रचित्त जल मंगवाकर अभयदेव सूरि के चरणों का प्रक्षालन किया और उस चरण प्रक्षालन के जल से फफोलों पर, अपने उत्तमांग मुख एवं अंगोपांगों पर छिड़काव किया। उसके प्राश्चर्य का पारावार नहीं रहा कि उसके फफोलों की जलन पूर्णतः शान्त हो गई है और वह अपनेप्रापको पूर्ण-रूपेण स्वस्थ अनुभव कर रहा है ।
तदनन्तर कर्दमराज ने अभयदेव सूरि से धर्मोपदेश सुना। उपदेश से उसे बोधिलाभ हुआ । बोघिलाभ के कारण उसका अन्तर्मन वैराग्य के कभी न उतरने वाले प्रगाढ़ रंग में रंग गया। उसने अपने पुत्र को राज सिंहासन पर अभिषिक्त कर तर्क पंचानन अभयदेव सूरि के पास श्रमरण धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली । दीक्षा देने पर प्राचार्य अभयदेव ने अपने नव दीक्षित शिष्य का नाम धनेश्वर रक्खा।
मुनि धनेश्वर ने गुरु की सेवा में रहते हुए विविध विद्याओं और आगमों का गहन ज्ञान प्राप्त किया। वे अनेक विद्याओं और आगमों के विशिष्ट विद्वान् बन गये। अपने अन्तिम समय में अभयदेव सरि ने अपने शिष्य धनेश्वर मनि को सर्वथा सुयोग्य समझकर राजगच्छ का प्राचार्य पद प्रदान किया ।
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