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________________ [ बैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ को देखते समय किसी विज्ञ के लिये भी यह बतलाना बड़ा कठिन हो जाता है कि अमुक प्राचार्य चन्द्रगच्छ के हैं अथवा राजगच्छ के। इन्हीं नन्न सूरि के शिष्य अजित यशोवादी सृरि प्रशिष्य सहदेव सूरि और प्रप्रशिष्य प्रम म्नसूरि हए । भाचार्य प्रद्य म्नसरि ने बाल्यकाल से ही वेद वेदांगों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उन्होंने सब दर्शनों का अध्ययन करते समय जैन दर्शन का भी अध्ययन किया । तुलनात्मक दृष्टि से सभी दर्शनों का विवेचन करने पर उन्हें इस प्रकार का विश्वास हो गया कि जैन धर्म के सिद्धान्तों के अनुसार सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और . सम्यग्चारित्र और सम्यग तपश्चरण की प्राराधना से ही जन्म, जरा, व्याधि आदि संसार के घोरातिघोर दारुण दुःखों से सदा सर्वदा के लिये मुक्ति प्राप्त की जा सकती है । अन्तर्मन में इस प्रकार का दृढ़ विश्वास होते ही उन्होंने राजगच्छ के प्राचार्य सहदेव सूरि के पास श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली। अपने गुरु की चरण शरण में रहते हुए उन्होंने भागमों का एवं अनेक विद्याओं का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया। न्याय शास्त्र में निष्णातता प्राप्त कर वे महान् दादी बने । उन्होंने सवालक, ग्वालियर, त्रिभूवनगिरि चित्तौड़ प्रादि अनेक राज्यों की राजसभानों में अन्य दर्शन के विद्वानों से शास्त्रार्थ किये । जैन वांग्मय में इस प्रकार के उल्लेख उपलब्ध होते हैं कि प्रद्य म्नसूरि ने अपने जीवन में चौरासी वादों में विजय प्राप्त की। शिशोदिया महाराणा मल्लट राज (विक्रम सम्वत् ६२२ से १०१०) की राजसभा में उन्होंने एक दिगम्बर माचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित कर अपना शिष्य बनाया। कुछ विद्वानों का अभिमत है कि इस विजय के उपलक्ष्य में चित्तौड़ के किले में एक विजयस्तम्भ का निर्माण करवाया गया।' प्रद्युम्न सूरि के पश्चात् अभयदेव सूरि राजगच्छ के पांचवें प्राचार्य हुए, जो 'तर्क पंचानन अभयदेव सूरि' के नाम से विख्यात हुए । वे भी बड़े उच्चकोटि के विद्वान् थे। कतिपय विद्वानों का अनुमान है कि थारपद्र गच्छ के प्राचार्य वादिवैताल शान्ति सूरि (उत्तराध्ययन सूत्र के टीकाकार) ने इन तर्क पंचानन अभयदेव सूरि के पास न्याय शास्त्र का प्रध्ययन किया था। इन अभयदेवसूरि ने प्राचार्य सिखसेन सूरि के सम्मति तक नामक ग्रंथ पर पच्चीस हजार श्लोक प्रमाण टीका अन्य की रचना की। जो वाद महार्णव के नाम से प्रसिद्ध है । इस विशाल ग्रन्थ में जैन मौर जैनेतर दर्शनों की सैंकड़ों प्रकार की विचारधाराएं उपलब्ध होती हैं। संयोग की बात है कि यह अभयदेव सूरि तर्क पंचानन भी अपने गृहस्थ जोवन में राजकुमार थे इसलिये इन्हें भी लोग राजर्षि के सम्मानपूर्ण सम्बोधन से अभिहित किया करते थे। मल्लसभायां विजिते दिगम्बरे सदीयपक्षः किस कोमरक्षकः । दातुं प्रभोरेकपटं समानयत् तमेकप जगृहे सुधीषु यः ॥३॥ (प्रभावक चरित्र प्रशस्ति, पृष्ठ संख्या २१३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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