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________________ राजगच्छ राजगच्छ श्वेताम्बर परम्परा में बड़ा यशस्वी गच्छ रहा है । इस गच्छ में अनेक प्रभावक और ग्रन्धकार प्राचार्य हुए हैं। जिन शासन के प्रचार एवं प्रसार में उल्लेखनीय योगदान इनसे मिला। इस गच्छ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जैन वांग्मय में जो उल्लेख उपलब्ध होते हैं उनका सारांश इस प्रकार है : तलवाडा (तहनगढ करोली बसने से पूर्व उसके आसपास का एक राजधानी नगर) के राजा, जो आगे जाकर नन्न सूरि हुए, अपने गृहस्थ जीवन में एक दिन मृगया के लिये निकले । वन में भागते हुए मृगों के.एक टोले को लक्ष्य कर उन्होंने तीर चलाया। उन्होंने जाकर देखा कि जिस शिकार को उनका तीर लगा है वह हरिणी है, और वह भी गर्भवती हरिणी है। हरिणी और उसके बाहर गिर पड़े गर्भ के बच्चे को तड़पते देखकर राजा का हृदय पश्चात्ताप की भाग में जलने लगा । राजा को स्वयं पर बड़ी घणा हई । पश्चात्ताप करते-करते उसे संसार से ही विरक्ति हो गई। राज्य, घर और परिवार को तृणवत् त्यागकर वे तलवाडा से निकल पड़े। पुण्य योग से उन्हें वनवासी गच्छ के एक प्राचार्य के दर्शन हुए। राजा ने उन प्राचार्य से धर्म का मर्म सुना । सच्चे धर्म का बोष होते ही उस राजा ने उन वनवासी प्राचार्य के पास श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षा देते समय नवदीक्षित का नाम नन्न मुनि रक्खा गया। बड़ी निष्ठा पौर विनयपूर्वक नन्नमुनि ने अपने प्राचार्य देव से अनेक विद्यानों और शास्त्रों का अध्ययन किया । वनवासी आचार्य ने अपना अवसान काल समोप समझकर और नन्न मुनि को सर्वथा सुयोग्य पात्र समझकर प्राचार्य पद प्रदान किया। अपने गुरु के स्वर्गारोहण के पश्चात् नन्न सूरि अपने शिष्य परिवार के साथ विभिन्न क्षेत्रों में अप्रतिहत विहार करते हुए जिनधर्म का प्रचार एवं प्रसार करने लगे। नन्न सूरि बड़े विद्वान्, प्रतिभाशाली और कुशल व्याख्याता थे। प्रतः उनका गच्छ उत्तरोत्तर अभिवट होने लगा। नन्न सूरि का जन्म राजवंश में हुमा था इसलिये लोग उन्हें राजर्षि और उनके गच्छ को राजगच्छ कहने लगे। इस प्रकार राजगच्छ वीर निर्वाण की चौदहवीं शताब्दी के मध्याह्न में मध्य गगन गत सूर्य के समान चमकने लग गया। राजगच्छ के प्राचार्य अपने आपको मूलतः चन्द्र. गच्छ के ही प्राचार्य मानते हैं और कहते हैं कि राजगच्छ चन्द्रगच्छ की ही शाखा है । यही कारण है कि राजगच्छ और चन्द्रगच्छ इन दोनों गच्छों की पट्टावलियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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