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________________ महाराणा अल्लट चित्तौड़ का शिशोदियावंशीय राजा चित्तौड़ का महाराणा अल्लट जैन धर्म और जैनाचार्यों के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा भक्ति रखने वाला मेवाड़ नरेश्वर था। मेवाड़ के यशस्वी शिशोदिया राजवंश में बप्पा रावल के पश्चात् महाराजा अल्लट बड़ा ही प्रतापी राजा हुआ है। मेवाड़ के महाराणा भर्तृभट्ट (द्वितीय) की महाराणी, राठौड़ वंश की राजकुमारी महालक्ष्मी की कुक्षि से अल्लट का जन्म हुआ । महाराणा भर्तृभट्ट के पश्चात् वि. सं. ६२२ के आस-पास अल्लट चित्तौड़ के राजसिंहासन पर बैठा। 'टाड राजस्थान में अल्लट का समय वि. सं. १२२ उल्लिखित है और वि. सं. १०१० तक के इसके राज्यकाल के शिलालेख उपलब्ध होते हैं । इससे अनुमान किया जाता है कि मेवाड़ के राजसिंहासन पर वि. सं. ६२२ से वि सं. १०१० तक आसीन रह कर अल्लट मेवाड़ का शासन करता रहा । ____ एक समय जैनाचार्य बलिभद्रसूरि का विहार क्रम से हथूडी में पदार्पण हुप्रा । उस समय महाराणा प्रल्लट की महारानी महालक्ष्मी हथंडी में थी और वह असाध्य रेवती रोग से पीड़ित थी। अनेक प्रकार के उपचारों के उपरान्त भी महारानी की व्याधि शान्त होने के स्थान पर उत्तरोत्तर उग्र होती जा रही थी। बलिभद्रसूरि के त्याग और तपश्चर्या की महिमा सुन कर महारानी महालक्ष्मी भी राजपुरुषों एवं परिचारिकाओं के साथ उनके दर्शन के लिये गई। आचार्यश्री के दर्शन कर. उनके त्याग एवं तपस्तेज से महारानी बड़ी प्रभावित हुई और उसने अपनी असाध्य व्याधि की करुण कहानी संक्षेप में प्राचार्य श्री को निवेदित कर दी। आचार्य बलिभद्रसूरि के दर्शनों और उनके द्वारा बताये गये व्रत-नियम, प्रत्याख्यान एवं पथ्यों के पालन से मेवाड़ की महालक्ष्मी का असाध्य रोग प्रथम दिन से ही क्रमश: शान्त होने लगा और इने-गिने दिनों में ही वह उस असाध्य रोग से मुक्त हो पूर्णरूपेण स्वस्थ हो गई। महारानी की रोगमुक्ति का समाचार पा महाराणा अल्लट प्राचार्य बलिभद्रसूरि के दर्शनार्थ उपस्थित हुए । आचार्य श्री ने राजा अल्लट को जैन धर्म के मूलभत सिद्धान्तों का सारतः बोध दे सम्यक्त व का महत्व बताया। महाराणा अल्लट पर प्राचार्य श्री के उपदेश का ऐसा अमिट प्रभाव हा कि वह जीवन भर जैनाचार्यों के सत्संग का लाभ लेने के साथ-साथ यथाशक्य जैन संघ की प्रभावना के कार्यों में सहयोग देता रहा । बलिभद्रसूरि के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए अल्लट ने अनेक प्रतिष्ठित नागरिकों को बलिभद्रसूरि के श्रद्धालु श्रावक एवं भक्त बनाया। उसने हथूडी के राजा विदग्धराज को भी सदा आचार्य श्री की सेवा में तत्पर रहने का परामर्श दिया । वि. सं. ६७३ के आस-पास की इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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