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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ६६३ उस बालक की बात सुन कर गांव का आबाल वृद्ध श्मशान की पाल की ओर उमड़ पड़ा। उन्होंने देखा कि खिम ऋषि का अंग प्रत्यंग चोटों से क्षत-विक्षत हो रहा है । घोर तपश्चरण के परिणामस्वरूप उनके शरीर का रक्त तो सूख चुका है, तथापि धावों में रुधिर करण चमक. रहे हैं। सभी ग्रामनिवासी उन उद्दण्ड एवं निर्दयी ब्राह्मण पुत्रों की मोर घृणापूर्ण दृष्टि से घूरने लगे। रक्त उगलते हुए उन किशोरों के माता-पिता खिम ऋषि के चरणों के समक्ष अपना शिर पृथ्वी पर रगड़-रगड़ कर अपने पुत्रों को क्षमा कर देने की भीख मांगने लगे। खिम ऋषि ध्यान मुद्रा में निश्चल खड़े थे। उनके मुखमण्डल पर प्रशांत महासागर के समान शान्ति का अखण्ड साम्राज्य विराजमान था। एक वयोवृद्ध ग्रामीण ने कहा : - "ये तो क्षमा के अवतार हैं। इनके लिये अपकारी और उपकारी दोनों ही समान हैं । ये तो मन से भी किसी का बुरा नहीं सोच सकते । यह तो इनकी अनन्य उपासिका किसी दिव्य शक्ति का ही प्रकोप है। इनके चरणों का प्रक्षालन कर उस चरणोदक को इन उद्दण्ड छोकरों के मुख, मस्तक और तन पर छिड़को एवं इन्हें वह चरणामृत पिलायो । शीध्रता करो, अभी ये सब पूर्णतः स्वस्थ हो जायेंगे।" । उस ग्रामवृद्ध के कथनानुसार खिम ऋषि के चरणोदक की बूदें उन किशोरों के मुख एवं मस्तक पर छिड़कते ही उन सबका रक्तप्रवाह रुक गया। सभी ग्राम निवासियों ने उन महर्षि के चरणों में अपना मस्तक रख अपने भाल पर उनकी चरणरज लगाई। उसी दिन से उस ग्राम के निवासी बोधा ऋषि को खिम ऋषि अर्थात् क्षमा ऋषि के सम्मानपूर्ण सम्बोधन से अभिहित करने लगे और दूर-दूर तक उनकी ख्याति खिम ऋषि के नाम से फैल गई। ब्राह्मणों ने उसी दिन विपुल धनराशि एकत्रित कर खिम ऋषि के समक्ष रख दी किन्तु कन्वन-कामिनी के त्यागी उन महा मुनि ने उसकी पोर प्रांख तक उठा कर नहीं देखा । अन्ततोगत्वा वह धनराशि समष्टि के लिये कल्याणकारी कार्यों में व्यय की गई। खिम ऋषि का तपश्चरण उत्तरोत्तर उग्र होता रहा । प्रत्येक तपश्चर्या के पारण के लिये वे बड़ा ही विचित्र अभिग्रह करते। उन्होंने पारण के लिये ८४ प्रकार के ऐसे विचित्र अभिग्रह किये, जिनकी पूर्ति असम्भव को सम्भव एवं प्रसाध्य को साध्य बना देने वाली प्रात्मशक्ति के अतिरिक्त किसी अन्य शक्ति से कदापि सम्भव नहीं। उन दुष्कर ८४ प्रभिग्रहों में से उदाहरणार्थ एक का उल्लेख यहां किया जा रहा है। एक दिन तपस्या का प्रत्याख्यान करते हुए खिम ऋषि ने मन ही मन । प्रतिज्ञा की कि धाराधिपति मुंज के लघु सहोदर सिंघुल का अनन्य ससा राव कृष्ण Jag Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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