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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
प्रदान किया । इसी मन्दिर की व्यवस्था के लिये विदग्धराज के पुत्र राजा मम्मट ने विक्रम सं. ९६६ में इन्हीं वासुदेवसूरि को एक नया दानशासन प्रदान किया । कालान्तर में विदग्ध राज के पौत्र धवलराज ने भी आचार्य शान्तिभद्र के उपदेश से वि. सं. १०५३ में इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया और इसकी व्यवस्था के लिए एक कूप की भूमि दान में दी ।
इस प्रकार हथू डी के शासकों के राज्याश्रय से बलिभद्रसूरि का यह नवीन संघ डी में फला-फूला और दूर-दूर तक इसकी प्रसिद्धि हुई । इसी कारण यह गच्छ यू डी गच्छ के नाम से लोक में प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ । इस गच्छ को हस्तिकुण्डी गच्छ के नाम से भी प्रभिहित किया जाता रहा है, जो कि हथंडी का ही संस्कृत स्वरूप है ।
जैसा कि प्रारम्भ में बताया जा चुका है, सांडेरा गच्छ चंत्यवासी परम्परा का प्राचीन गच्छ था । जब तक चैत्यवासी परम्परा का प्राबल्य रहा, उस परम्परा के कुलगुरु भी अपने-अपने गच्छ के अनुयायियों को, चाहे वे देश के किसी भी भाग .में क्यों न रहे हों, बराबर सम्हालते रहे और अपने-अपने गच्छ के गृहस्थों के नये नाम, स्थान आदि का अपनी बहियों में उल्लेख करते रहे । किन्तु जब चैत्यवासी परम्परा उत्तरोत्तर ह्रासोन्मुखी होती रही, त्यों-त्यों तपागच्छ परम्परा के कुलगुरुत्रों को चैत्यवासी परम्परा के कुलगुरु अपनी बहियां सम्हलाते गये और इस प्रकार चैत्यवासी परम्परा के लुप्त होते ही सांड़ेरा गच्छ के अधिकांश श्रावक गण तपागच्छ के श्रावक बन गये ।
सांडेरगच्छ की पट्टावली को देखते हुए ऐसा अनुमान किया जाता है कि चैत्यवासी परम्परा का न्यूनाधिक रूप से अस्तित्व विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के अन्तिम उत्तरार्द्ध तक बना रहा।
हटूडिया गच्छ भी एक प्रकार से सांडेरा गच्छ की ही शाखा थी अतः इस शाखा के श्रावक भी अन्ततोगत्वा चैत्यवासी परम्परा के लुप्त होने पर तपागच्छ के उपासक बन गये ।
मन्त्र तन्त्र और चमत्कार प्रदर्शन के युग में वस्तुतः सांडेरगच्छ के आचार्य यशोभद्रसूरि एवं बलिभद्र सूरि ने जिनशासन की उल्लेखनीय प्रभावना की ।
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