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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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इसके उपरान्त भी जब महाराणा प्रल्लट ने कोई न कोई सेवा कार्य बताने का त्याग्रहपूर्ण अनुरोध किया तो बलभद्र मुनि ने कहा- "राजन् ! यदि आप कुछ करना ही चाहते हैं तो मेरा एक काम कीजिये । मेरे गुरुदेव ने हमारे सांड़ेर गच्छ का प्राचार्य पद मुझे प्रदान न कर मेरे छोटे गुरुभ्राता शालिसूरि को दिया है । आप शालिसूरि से कहकर आचार्य पद का प्राधा भाग मुझे दिलवा दीजिये।"
"इन तपस्वी मुनि के उपकार के भार से थोड़ा बहुत तो उऋण होऊंगा" यह विचार कर महाराणा प्रल्लट बड़ा प्रसन्न हुआ । उसने बड़े सम्मान के साथ शालिसूरि को प्राहड़ में बुला राजकीय ठाट-बाट से उनका नगरप्रवेश महोत्सव किया । एक दिन उपयुक्त अवसर देखकर महाराणा अल्लट ने शालिसूरि से निवेदन किया - "बलिभद्र मुनि बड़े त्यागी, तपस्वी और प्रापके बड़े गुरुभाई हैं । आप अपना श्रधा प्राचार्यपद का अधिकार उन्हें दे दीजिये । इसके उपलक्ष में श्राप जो भी कहें, वह करने के लिये मैं सर्वथा समुद्यत हूं।"
शालिसूरि ने मधुर मुस्कान भरे स्वर में कहा- राजन् ! जिस प्रकार की राजनीति राजन्यवर्ग में प्रचलित है, उसी प्रकार की धर्मनीति हमारे श्रमरणसमाज में भी परम्परागत रूप से प्रचलित है । राजन्यवर्ग प्रजावर्ग के सदस्यों की भांति अपने राज्य का आधा भाग अथवा एक से अधिक भाई हों तो उस अनुपात से राज्य का भाग अपने भाइयों को नहीं देते । राज्यसिंहासन पर केवल उत्तराधिकारी का ही पूर्ण अधिकार रहता है । यही राजनीति परम्परा से चली प्रा रही है । ठीक इसी प्रकार श्रमरण वर्ग में भी प्राचार्य पद का अधिकारी एक ही शिष्य होता है । गुरु जिस शिष्य को प्राचार्य पद प्रदान कर देते हैं, वही वस्तुतः प्राचार्य पद का अधिकारी रहता है । इस प्राचार्य पद के अधिकार को विभाजित कर गुरुं भाइयों में विभक्त नहीं किया जा सकता ।"
शालिसूरि के उत्तर से महाराणा अल्लट को पूर्ण सन्तोष हुआ । उसने बलभद्र मुनि के उपकार से उऋण होने के लिये अनेक गृहस्थों को बलिभद्रमुनि का श्रावक बना कर उन्हें महोत्सव के साथ प्राचार्य पद पर अधिष्ठित करवाया । श्राचार्य पद पर आसीन करते समय बलिभद्र का नाम वासुदेवसूरि रखा गया ।
हयूडी गच्छ की स्थापना
प्राचार्य पद पर अधिष्ठित होने के पश्चात् प्राचार्य बलिभद्र विहार क्रम से डी पहुंचे। वहां थू डी के राठोड़ वंशीय राजा विदग्धराज को धर्मोपदेश दे जैनधर्मानुयायी बनाया । विदग्ध राज ने हथू डी में आदिनाथ भगवान् का एक मन्दिर बनवाकर उसमें प्राचार्य बलिभद्रसूरि के हाथ से भ. ऋषभदेव की मूर्ति की वि. सं. ९७३ में प्रतिष्ठा करवाई। विदग्धराज ने उसी समय उस मन्दिर की दैनिक प्रावश्यकताओं की पूर्ति एवं व्यवस्था हेतु व्यापार और कृषि की प्राय के कुछ करों का भाग
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