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________________ सांडेर गच्छ सांडेरगच्छ वस्तुतः चैत्यवासी परम्परा का एक प्राचीन गच्छ रहा है । इस गच्छ की उत्पत्ति मारवाड़ के सांडेराव नामक नगर से हुई प्रतीत होती है। इसी कारण इसे सांडेरावगच्छ के नाम से भी अभिहित किया जाता है। सांडेराव नगर, शैवों के तीर्थस्थान "नीम्बा रा नाथ" के पास ही बसा हुआ है । सांड़ेरा गच्छ का एक अपर नाम सांड़ेसरा गच्छ भी उपलब्ध होता है । इस गच्छ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में, प्रमाणाभाव के कारण निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। विक्रम की दशवीं शताब्दी के प्रथम चरण में यह गच्छ अपने प्रभावक आचार्यों के प्रभाव से प्रसिद्धि में पाया। सांडेरा गच्छ में ईश्वरसूरि के शिष्य यशोभद्रसूरि नामक एक महान् प्रभावक प्राचार्य विक्रम की दशवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुए। उनके सम्बन्ध में अनेक लोक कथाएं जनश्रु तियों के रूप में चली आ रही हैं। उन किंवदन्तियों के अनुसार वे अपने समय के बहुत बड़े मन्त्रवादी थे। उन्होंने अपने विद्याबल एवं मन्त्रबल के प्रभाव से अनेक अजैनों को जैनधर्मावलम्बी बनाया। त्रिपुटी मुनि दर्शनविजयजी आदि ने अपने ग्रन्थ 'जैन परम्परा नो इतिहास, भाग १' में यशोभद्रसूरि का प्राचार्यकाल वि. सं. ६६८ से अनुमानतः वि. सं. १०२६ अथवा १०३६ तक होने का उल्लेख किया है। किन्तु यशोभद्रसूरि के प्रमुख शिष्य बलिभद्रसूरि के जीवनवृत्त की घटनाओं के पर्यवेक्षण से यह प्रकट होता है कि चित्तौड के महाराणा अल्लट और बलिभद्रसूरि समकालीन थे। महाराणा अल्लट जिस समय आहड़ में निवास करते थे उसी समय बलिभद्रसूरि ने अल्लट की राठोड़ी महाराणी को असाध्य रोग से वि. सं. ९७३ के आस-पास मुक्त किया। अल्लट का सत्ताकाल वि. सं. १२२-१०१० इतिहास सिद्ध है । इस प्रकार की स्थिति में यशोभद्रसूरि का प्राचार्यकाल विक्रम की दशवीं शताब्दी के तृतीय चरण तक ही संगत बैठता है । हमारे इस अनुमान की पुष्टि जूनागढ़ के लूट-खसोट करने वाले राजा खंगार द्वारा जैनसंघ को धनप्राप्ति की दृष्टि से गिरनार की यात्रा करने से रोके जाने और बलिभद्रसूरि द्वारा किये गये चमत्कार प्रदर्शन से बाध्य हो राजा खंगार द्वारा बौद्धों के अधिकार में चले आ रहे गिरनार तीर्थ को श्वेताम्बरों के अधिकार में दिये जाने की घटना से भी होती है। राव खंगार का सत्ताकाल विक्रम की दसवीं शताब्दी का प्रथमार्द्ध इतिहास सम्मत है और अल्लट की महारानी को बलिभद्रसूरि द्वारा रोगमुक्त किये ' जैन परम्परा नों इतिहास, भाग १, पृष्ठ ५६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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