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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
सब तथ्यों को दृष्टिगत रखकर विचार करने पर शीलांकाचार्य का समय विक्रम की हवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर १०वीं शती के पूर्वार्द्ध का प्रमाणित होता है ।
शीलाचार्य द्वारा श्राचारांग की टीका के निर्माण काल के इस प्रकार सुनिश्चित हो जाने पर प्रश्न यह रहता है कि किस स्थान पर उन्होंने इस टीका का निर्माण किया । इस सम्बन्ध में ऊपर उल्लिखित श्लोक में बता दिया गया है कि गम्भूता नामक नगरी में रहते हुए इस टीका का निर्माण किया । पुष्पिका में दिये हुए इस वाक्य से कि “तदात्मकस्य ब्रह्मचर्यास्य तस्कन्धस्य निर्वृतिकुलीन श्रीशीलाचार्येण तत्वादित्यापरनाम्ना वाहरिसाधुसहायेन कृता टीका परिसमाप्तेति " - उन्होंने यह अभिव्यक्त किया है कि वे निर्वृति कुल के प्राचार्य थे और उन्होंने वाहरि साधु की सहायता से आचारांग की टीका की रचना की ।
सूत्रकृतांग -- टीका की पुष्पिका में भी उन्होंने इसी बात का उल्लेख किया है कि वारि साधु की सहायता से उन्होंने सूत्रकृतांग की टीका का निर्माण किया ।
इन दो आगमों की सारगर्भित सुबोध्य, सुविस्तृत और अतीव सुन्दर टीकाओं की रचना कर शीलांकाचार्य ने जैन जगत् पर और अध्ययनशील तत्व जिज्ञासुत्रों पर महान् उपकार किया है । इन दो अनमोल कृतियों ने शीलांकाचार्य की कीर्ति और उनके नाम को अमर कर दिया है ।
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