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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
[ ६८३ टीका की रचना की जाने के केवल २६ वर्ष पश्चात ही वि. सं. ११२० में स्थानांग और समवायांग जैसे विशाल अंगों के साथ-साथ ज्ञाताधर्मकथांग पर भी (इस प्रकार के तीन अंगों पर) वृत्तियों का निर्माणकार्य सम्पन्न कर दिया।
इन तीन अंगों पर वृत्तियों की रचना सम्पन्न करने में उन्हें कम से कम चार-पांच वर्ष तो अवश्य लगे होंगे और आगमों पर वृत्तियां, टीकाएं लिखने योग्य न केवल जैनागमों, जैन वांग्मय ही अपितु तत्कालीन प्रमुख दर्शनों के धर्मशास्त्रों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त करने में कम से कम पन्द्रह-बीस वर्ष का समय भी उन्हें लगा होगा तो प्रत्येक विचारक को यह मानने में कोई बाधा नहीं होगी कि शीलांकाचार्य के जीवनकाल में ही अभयदेवसूरि जैनदर्शन और अन्यान्य दर्शनों के अध्ययन में संलग्न थे।
__इस प्रकार की स्थिति में अभयदेव को लक्ष्य कर शासन देवी यह नहीं कहती
वत्तिमेकादशांग्याः स, विदधे धौतकल्मशः ॥ १०४ ।। 'अंगद्वयं विनान्येषां, कालादुच्छेदमाययुः ।। १०५ ।।
शीलांकाचार्य ने एकादशांगी पर टीका-विवरणों की रचना की और उन ११ टीकाओं में से ६ टीकाएं उनके जीवन काल में ही नष्ट हो गई, अथवा २६ वर्ष पश्चात् ही नष्ट हो गई, विलुप्त हो गई, यह मानने के लिये कोई भी विज्ञ उद्यत नहीं होगा। साधु-साध्वियों के लिये-साधक मात्र के लिये परमोपयोगी आगमज्ञान की अनमोल कुंजियों को चतुर्विध धर्म संघ ने सुनिश्चित रूपेण संजोकर सूरक्षित रखने के उपाय किये होंगे । इस प्रकार की स्थिति से शीलांक द्वारा रचित स्थानांग, समवायांग आदि शेष ह अंगों की टीकाओं को, प्रकृतिजन्य वा मानवजन्य विप्लवों आदि के परिणामस्वरूप विलुप्त होने में कम से कम सौ, डेढ़ सौ वर्ष का समय तो अवश्य ही लगा होगा । इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर शीलांकाचार्य द्वारा निर्मित अाचारांग वृत्ति की किसी प्रति में शक सं. ७७२, दूसरी प्रति में शक सं. ७८४ और किन्हीं प्रतियों में शक सं. ७९८ दिये हुए हैं, उनमें से किसी भी एक को इसका रचनाकाल मान लेने में किसी भी प्रकार की बाधा व आपत्ति के लिये कोई अवकाश नहीं। ऐसा मान लेने पर आचारांग टीका का रचनाकाल वि. सं. ६०७, अथवा ६१७ व अधिक से अधिक ६३३, इन तीनों में से एक सिद्ध होता है। शक सं. ७६८ (अर्थात् वि. सं. ६३३) का उल्लेख पुष्पिका में है, ऐसी स्थिति में विक्रम सं. ६३३ को ही प्राचारांग टीका का रचनाकाल मान लेना सर्वथा समुचित होगा। इससे शीलांकाचार्य और अभयदेवसूरि की उपरिचित रचनायों के काल में १८७ वर्ष का अन्तराल शीलांकाचार्य द्वारा रचित शेष : अंगों की टीकाओं के विलुप्त होने में काल की दृष्टि से युक्तिसंगत प्रतीत होता है। इन
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