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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
प्रचलन हुआ और वि. सं. ३१६ में गुप्त संवत्सर चला। तदनुसार आचारांग सूत्र की विभिन्न प्रतियों में जो उपरिलिखित ४ प्रकार का समय लिखा गया है, उनसे क्रमशः वि. सं.६०७, १०६१, ६३३ और ६१६ यों चार प्रकार का एक-दूसरे से भिन्न लेखनकाल प्रकट होता है । इस प्रकार १५८ से लेकर १८४ वर्ष तक का लेखनकाल में अन्तर बताने वाले उल्लेखों के कारण ही शीलांकाचार्य जैसे महान् उपकारी विद्वान् प्राचार्य का सत्ताकाल अभी तक विवादास्पद ही बना हुआ है।
इस विवादास्पद प्रश्न के हल के लिये हमें प्रभावक चरित्र के इसी प्रकरण के प्रारम्भ में उद्ध त उन दो श्लोकों पर विचार करना होगा जिनमें शासनाधिष्ठात्री देवी ने अभयदेवसूरि से अंग शास्त्रों पर वृत्तियों की रचना करने की प्रार्थना करते हुए निवेदन किया था। प्रभावक चरित्रकार के उल्लेखानुसार देवी ने अभयदेव सूरि से कहा था-"प्राचीन काल में कोट्याचार्य इस अपर नाम से प्रसिद्ध शीलांकाचार्य ने ग्यारहों अंगों की वृत्तियों की रचना की थी। काल के प्रभाव से अर्थात् पर्याप्त समय व्यतीत हो जाने के कारण उन ग्यारह अंगों की वृत्तियों में से दो अंगों की वृत्तियों (आचारांग और सूत्रकृतांग) को छोड़कर शेष सभी अंगों की वृत्तियों का व्यवछेद हो गया है । इसलिये अब आप चतुर्विध तीर्थ पर कृपा करके ६ अंगों पर वृत्तियों की रचना के लिये उद्यम कीजिये।"
प्रभावक चरित्र के इस उल्लेख से यही निष्कर्ष निकलता है कि प्राचार्य शीलांक द्वारा रचित ६ अंगों की वृत्तियां उनकी रचना के अनन्तर पर्याप्त समय बीत जाने पर नष्ट हो गईं, विलुप्त हो गईं।
नवांगी वत्तिकार श्री अभयदेवसूरि ने ज्ञाताधर्मकथांग की वत्ति की रचना विक्रम सं. ११२० और व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग की वृत्ति की रचना विक्रम सं. ११२८ में सम्पूर्ण की, यह इन दोनों अंगों की वृत्तियों के अन्त में स्वयं श्री अभयदेव सूरि द्वारा निर्मित पुष्पिकाओं से निर्विवादरूपेण सिद्ध है।'
इस प्रकार की स्थिति में शीलांकाचार्य द्वारा निर्मित आचारांग वृत्ति का रचनाकाल गुप्त संवत् ७७२ तदनुसार विक्रम संवत् १०६१ मान लिया जाय तो इसका अर्थ यह हुआ कि शीलांकाचार्य द्वारा प्राचारांग सूत्र पर विवरण अथवा
एकादशसु शतेष्वथ विंशत्यधिकेषु विक्रमसमानाम् । अणहिल्लपाटनगरे विजयदशम्यां च सिद्ध यम् ।। १२ ॥
--ज्ञाताधर्मकथांग वृत्ति
अष्टाविंशतियुक्त वर्षसहस्र शतेन चाभ्यधिके । अणहिल्लपाटकनगरे कृतेयमच्छुप्तधनिवसतौ ॥ १५ ।।
~~~-व्याख्याप्रज्ञप्तिवृत्ति
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