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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ६८१ शैली बड़ी ही सुन्दर होने के कारण सहज सुबोध्य है। इस प्रकार "तस्मात्सुखबोधार्थ"-अपने इस प्रारम्भ में ही किये गये संकल्प का सुचारुरूपेण अन्त तक निर्वहन किया है। प्राचार्य शीलांक ने आचारांग और सूत्रकृतांग इन दोनों सूत्रों पर किस समय, किस स्थान पर, किसकी सहायता से टीकाओं की रचना की और वे किस परम्परा के प्राचार्य थे, स्वयं उन्होंने इन सब बातों पर प्रकाश डालते हुए लिखा द्वासप्तत्यधिकेषु हि शतेषु सप्तसु गतेषु गुप्तानाम् । संवत्सरेषु मासि च भाद्रपदे शुक्ल पंचम्याम् ॥१॥ शीलाचार्येण कृता गम्भूतायां स्थितेन टीकैषा। सम्यगुपयुज्य शोध्यं, मात्सर्यविनाकृतराय ।।२।। इस प्रकार का उल्लेख देवचन्द लालभाई पु० फंड से प्रकाशित शीलांकाचार्य द्वारा रचित टीका सहित आचारांग सूत्र (पत्र ३१६) में है। राय धनपतसिंह द्वारा कलकत्ता से प्रकाशित आचारांग सूत्र सटीक के अन्त में शीलांकाचार्य द्वारा दी गई पुष्पिका में निम्नलिखित श्लोक दिये हुए हैं : आचार-टीका-करणे यदाप्त, पुण्यं मया मोक्षगमैकहेतुः । तेनापनीया शुभराशिमुच्चराचारमार्गप्रवरणोऽस्तु लोकः ।१।। शकनृपकालातीतसंवत्सर शतेषु सप्तसु चाष्टानवत्यधिकेषु । वैशाखशुद्ध पंचम्यां (२) आचार टीका कृतेति ।। देवचन्द लालभाई पुस्तक फण्ड से प्रकाशित आचारांग टीका की पुष्पिका के अन्त में "शकनृप कालातीत ...."- यह श्लोक नहीं है । शीलांकाचार्यकृत टीका सहित आचारांग की जो प्रतियां वर्तमान में उपलब्ध होती हैं, उनमें शीलांकाचार्य द्वारा टीका की रचना का भिन्न-भिन्न समय उल्लिखित है । किसी में शक सं० ७७२, किसी में गुप्त सं० ७७२, किसी में शक सं० ७६८ और किसी में शक सं० ७८४ इस टीका की रचना का समय लिखा हुआ है। जहां तक विभिन्न शक संवतों का उल्लेख है, उससे कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता । केवल १२ और २६ वर्ष आगे-पीछे का लेखनकाल का अन्तर रहता है। किन्तु यदि गुप्त सं० ७७२ को इस टीका की रचना का समय मान लिया जाय तो उपरिलिखित से क्रमश: वि० सं० ६०७, १०९१,९३३ और वि० सं० ११६ शेष तीन भिन्न-भिन्न शक संवतों के उल्लेखानुसार टीका के रचनाकाल में १५८, १७२, १८४ वर्षों तक का अन्तर पा जाता है। विक्रम सं० १३५ में शक संवत्सर का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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