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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
ब्रह्मद्वीपिक शाखा के मुकुट तुल्य थे, विक्रम सं. २०० में इस विवरण की रचना की।
आचारांग सूत्र के शस्त्रपरिज्ञा नामक प्रथम अध्ययन पर विवरण लिखते समय शीलांकाचार्य ने पूर्वाचार्य श्री गन्धहस्ति द्वारा इस अध्ययन पर लिखे गये विवरण को अति गहन बताते हए उसमें से सार ग्रहण कर प्रथम अध्ययन की टीका करने का निम्नलिखित रूप में संकल्प किया
शस्त्रपरिज्ञाविवरणमतिबहुगहनं च गन्धहस्तिकृतम् । तस्मात्सुखबोधार्थ, गृह्णाम्यहमंजसा सारम् ।।३।।
शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन पर विवरण लिख चुकने के अनन्तर भी शीलांक ने लिखा है-"गन्धहस्ति द्वारा प्राचारांग सूत्र के प्रथम श्र तस्कन्ध के शस्त्रपरिज्ञा नामक प्रथम अध्ययन पर पूर्व में जो विवरण लिखा गया था, वह अतीव गहन था, उस पर मेरे द्वारा विवरण का लेखन सम्पन्न कर दिया गया है। अब मैं आचारांग के शेष अध्ययनों पर विवरण लिखता हूं।"
इसी प्रकार आचारांग-प्रथम श्र तस्कन्ध के ६ठे अध्ययन पर विवरण लिख चकने के अनन्तर प्राचार्य शीलांक ने आठवें अध्ययन पर विवरण लिखा, प्रारम्भ करने से पूर्व लिखा है-"प्राचारांग"-प्रथम श्रु तस्कन्ध का महापरिज्ञा नामक सप्तम अध्ययन विलुप्त हो चुका है अत: मैं अब पाठवें अध्ययन का विवेचन प्रारम्भ कर रहा हूँ।
प्राचार्य शीलांक द्वारा आचारांग टीका में किये गये इन दो उल्लेखों से दो महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्यों पर स्पष्ट रूप से प्रकाश पड़ता है। एक तो इस तथ्य पर कि गन्धहस्ति द्वारा शस्त्रपरिज्ञा नामक (प्राचारांग) प्रथम श्रु तस्कन्ध के प्रथम अध्ययन पर गन्धहस्ति द्वारा एक अति गहन और विशद विवरण लिखा गया था। दूसरे इस तथ्य पर शक सं० ७६८ तदनुसार विक्रम सं० ६३३ एवं वीर निर्वाण सं० १४०३ में जब कि प्राचार्य शीलांक ने प्राचारांग पर विवरणात्मक टीका की रचना की, उससे पूर्व ही आचारांग सूत्र के प्रथम श्र तस्कन्ध का महापरिज्ञा नामक सातवां अध्ययन व्यवच्छिन्न अर्थात् विलुप्त हो गया था।
प्राचाराग और सूत्रकृतांग -- इन दोनों सूत्रों पर शीलांकाचार्य ने जो विवरणात्मक टीकाएं लिखी हैं, उनमें टीकाकार ने केवल शब्दार्थ तक ही सीमित न रह कर मूल सूत्र, नियुक्ति एवं शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन पर गन्धहस्ति द्वारा लिखे गये विवरण-इन सबको विस्तृत व्याख्या की परिधि में लेते हुए प्रत्येक विषय पर तलस्पर्शी विवेचन विस्तारपूर्वक किया है । शीलांक द्वारा रचित विवरण को वर्णन
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