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________________ १६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ शाली जैन राज्य, गंग-राज्य की स्थापना की। उन्हें गंग-राज्य के प्रथम राजा के रूप में सिंहासन पर बैठाने के पश्चात् जिन सात बातों का उपदेश दिया उन सात शिक्षाओं में अन्तिम शिक्षा यह थी कि : "युद्ध भूमि में कभी पीठ मत दिखाना।" उन्होंने गंग राजवंश के प्रथम राजा दडिग् और माधव को सावधान करते हुए कहा था कि इन सात शिक्षाओं में से किसी एक भी शिक्षा का यदि उल्लंघन करोगे, पीठ दिखाकर रणभूमि से जिस दिन पलायन कर जाओगे उसी दिन से तुम्हारा राजवंश नष्ट हो जायेगा। देवद्धि क्षमाश्रमण से उत्तरवर्ती काल में प्रसिद्धि पाये हुए इन धर्मसंघों के पंच महाव्रतधारी प्राचार्यों ने, साधुओं ने राजाओं, राजवंशों, अमात्यों, सामन्तों, राज्याधिकारियों, श्रीमन्तों, श्रेष्ठियों और प्रजा के सभी वर्गों को अधिकाधिक संख्या में अपना शिप्य, अनुयायी एवं समर्थक बनाने तथा अपनी ओर आकपित करने के लिये अनेक प्रकार के तन्त्र, मन्त्र, यन्त्र, ज्वालामालिनी कल्प, पद्मावती कल्प आदि कल्पों, अनेक प्रकार के देव देवियों की मूर्तियों, मन्दिरों और चमत्कारपूरणं तथाकथित सिद्धियों की परिकल्पना कर उनके माध्यम से प्रभत्व, सत्ता, ऐश्वर्य, कोत्ति और विपूल वैभव प्राप्त करना प्रारम्भ किया। अपने अभीप्सित मनोरथों की सिद्धि के लिये लोकप्रवाह इनकी ओर उद्वेलित सागर के समान सब ओर से उमड़ पड़ा। देश के इस छोर से उस छोर तक जन-मानस में भौतिक कामनायों से अनुप्राणित अन्धविश्वास की एक अदम्य लहर तरंगित हो उठी । ग्राम-ग्राम और नगरनगर में पूजा प्रतिष्ठा जाप (याप), मन्त्र सिद्धि, यन्त्रसिद्धि प्रादि अनुष्ठानों में अहनिश व्यस्त और वीतराग जिनेन्द्र देव द्वारा प्ररूपित श्रमण धर्म को अपनी सुविधा एवं इच्छानुसार स्वरूप प्रदान करने वाले इन मध्ययुगीन विभिन्न नामधारी श्रमण संघों के चैत्यालयों, मठों, मन्दिरों, वसतियों, यक्षायतनों, ज्वालामालिनी, अम्बिका, पद्मावती प्रति देवियों के मन्दिरों और उपाथयों में स्वर्णमुद्राओं, रजत मुद्राओं एवं मरिण माणिक्यादि की अहनिश वृष्टि होने लगी। जो श्रमण जीवन सम्यग्ज्ञानदर्शन-चारित्र रूपी रत्नत्रयी की आराधना एवं तप संयम के माध्यम से मुक्ति की साधना के लिये समर्पित होना चाहिये था, वह पावन श्रमण जीवन भौतिक लालसानों के लोभ में अन्ध बने लोक प्रवाह को समर्पित हो गया। इन मध्ययुगीन धर्म संघों के प्राचार्यों अथवा श्रमणों द्वारा मन्त्र, तन्त्र आदि विद्याओं के माध्यम से किस प्रकार की कार्यसिद्धि की जाती थी एतदर्थ सहस्रश: उदाहरणों में से एक उदाहरण राष्ट्रकूट वंशीय नरेश गोविन्द तृतीय के समय का इस प्रकार है :-- "ईसा की नौ वीं शताब्दी के मुनि अर्क कीत्ति ने कुनंगल प्रदेश के प्रशासक विमलादित्य को अपने मन्त्रबल द्वारा भीषण प्रेतबाधा से सदा सर्वदा के लिये विमुक्त कर दिया । इस चमत्कार से प्रसन्न होकर सम्पूर्ण गंग मण्डल के अधिराज एवं राष्ट्रकूट राज्य के सामन्त चाकिराज ने अपने स्वामी राष्ट्रकट राज राजेश्वर गोविन्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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