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________________ शीलांकाचार्य (अपरनाम तत्वाचार्य) वीर निर्वाण की चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और १५वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की बीच की अवधि के प्राचार्य शीलांक का नाम देवद्धि क्षमाश्रमण से उत्तरवर्ती काल के आगममर्मज्ञ आचार्यों में शीर्ष स्थान पर प्राता है । दे अपने, तत्वाचार्य-इस अपर नाम से भी विख्यात रहे हैं । प्रभावक चरित्रकार ने आपका एक और अपर नाम 'कोट्याचार्य' भी दिया है। आप संस्कृत और प्राकृत-दोनों ही भाषाओं के बड़े ही उच्चकोटि के विशिष्ट विद्वान थे । अपने समय में शीलांकाचार्य आगमों के साधिकारिक प्रामाणिक विद्वान माने जाते थे। गढ़ार्थों एवं अनेकार्थों से ओतप्रोत दुरूह आगमों को साधु-साध्वी समूह एवं मुमुक्ष साधक उन प्रागम-पाठों को सुगमतापूर्वक समझ कर हृदयंगम कर सकें, इस परम परोपकार की भावना से अनुप्राणित हो प्राचार्य शीलांक ने 'स्वान्तः सुखाय समष्टि-हिताय च'-प्रभाचन्द्रसरि के उल्लेखानुसार आचारांगादि ग्यारहों अंगों पर टीकाओं की रचना की। शीलांकाचार्य द्वारा रचित उन ग्यारह अंगशास्त्रों की टीकानों में से वर्तमान काल में केवल प्राचारांग-टीका और सूत्रकृतांग-टीका-ये दो टीकाएं ही उपलब्ध होती हैं। शेष ६ आगमों पर आप द्वारा निर्मित टीकाएं वर्तमानकाल में अनुपलब्ध हैं, इस बात का प्रभावक चरित्र में स्पष्ट उल्लेख है। अभयदेवसरि ने 'व्याख्याप्रज्ञप्ति-सत्र की स्वयं द्वारा निर्मित टीका में, अपने से पूर्व के टीकाकार का स्थान-स्थान पर उल्लेख किया है, इससे भी यही फलित होता है कि व्याख्या प्रज्ञप्ति की टीका की रचना करते समय अभयदेवसरि के समक्ष शीलांकाचार्य द्वारा निर्मित व्याख्या प्रज्ञप्ति की टीका थी। अभयदेवसूरि के अतिरिक्त अन्य किसी ने व्याख्या प्रज्ञप्ति पर उनसे पूर्व टीका की रचना की हो, इस प्रकार का कोई उल्लेख कहीं उपलब्ध नहीं होता। इससे भी इस बात की पुष्टि होती है कि प्राचार्य शीलांक ने प्राचार्य प्रभाचन्द्र के कथनानुसार व्याख्याप्रज्ञप्ति आदि सभी अंगों पर टीकाएं लिखी थीं। ' श्री शीलांकः पुरा कोंटयाचार्यनाम्ना प्रसिद्धिमः । वृत्तिमेकादशांग्या: स, विदघे धौतकल्मष: ।।१०४।। अंगद्वयं विनान्येषां, कालादुच्छेदमाययुः । वृत्तयस्तत्र संघानुग्रहायाद्य कुरूद्यमम् ।१०।। (प्रभावक चरित्र, (१६ अभयदेवसूरिचरितम् ) पृष्ठ १६४) २ अयं च प्राग्व्याख्यातो नमस्कारादिको ग्रन्थो वृत्तिकृता न व्याख्यातः कुतोऽपि कारणादिति । (व्याख्या प्रज्ञप्ति टीका रतलाम संस्करण, पृष्ठ १०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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