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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
[ ६७७ मानदेव सूरि की सेवा में नाडोल इस विज्ञप्ति के साथ प्रेषित किया कि वे चतुर्विध संघ की कृपा कर महामारी के कराल गाल से रक्षा करें।
जिस वक्त बीरदत्त श्रावक नाडोल मानदेव सूरि के उपाश्रय में पहुंचा उस समय जया और विजया देवी उनके मुखारविन्द पर दृष्टि लगाये उनकी पर्युपासना कर रही थीं।
यह देखकर श्रावक वीरदत्त को इस प्रकार की शंका हुई कि एकान्त में स्त्रियों से निषेवित इन प्राचार्य में महामारी को दूर करने की शक्ति कैसे हो सकती है । जया और विजया ने उसके मनोगत भावों को जानकर उसकी भर्त्सना की और कहा :"जहां इस प्रकार के अधम श्रावक नामधारी रहते हैं वहां महामारी से भी अति भयंकर अन्यान्य प्रकोप हो सकते हैं।"
वीरदत्त श्रावक ने अपने दुर्विचारों के लिये पश्चात्ताप करते हुए देवियों से . क्षमायाचना की। करुणासिन्धु मानदेव सूरि ने श्री शान्तिस्तव नामक मन्त्र लिखवाकर दिया और संघ को कहलवाया कि इसका निरन्तर जाप किया जाय ।
वीरदत्त श्रावक से श्रीमानदेव सूरि द्वारा प्रेषित शान्तिस्तव के सामूहिक जाप से महामारी का प्रकोप तत्काल शान्त हो गया।
कालान्तर में यवनों द्वारा तक्षशिला पर आक्रमण किया गया। यवनों ने तक्षशिला निवासियों की सम्पत्ति एवं प्राणों आदि को भयंकर क्षति पहुंचाते हुए तक्षशिला को ध्वस्त कर दिया, और इस प्रकार जया विजया का कथन सत्य हुआ।
निति कुल के इन्हीं महान प्रभावक मानदेव सरि के शिष्य थे शीलांकाचार्य, शीलाचार्य अथवा विमल सरि । इन विमलमति प्राचार्य शीलांक ने विक्रम सम्वत् ६२५ में 'चउवन महापुरुष चरियं' नामक ग्रन्थ की रचना की, जोकि प्राकृत साहित्य का एक अनमोल ग्रन्थरत्न है।।
इससे अधिक शीलांकाचार्य का परिचय उपलब्ध नहीं होता।
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