________________
६७६ ]
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास---भाग ३
वृद्धदेवसरि के पश्चात् उनके पट्टधर प्रद्योतनसूरि हुए। प्रद्योतनसूरि के उपदेशों से प्रभावित एवं प्रबद्ध होकर नाडोल निवासी श्रेष्ठि जिनदत्त को पतिपरायण धर्मपत्नी धारिणी की कूक्षि से उत्पन्न मानदेव ने श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की। उद्योतनसूरि के पास निष्ठापूर्वक अध्ययन कर कुशाग्रबुद्धि मानदेव ने अनेक विद्याओं में प्रकाण्ड पाण्डित्य एवं जैन सिद्धान्तों में निष्णातता प्राप्त की । अन्त में सभी भांति सुयोग्य समझ कर उद्योतनसूरि ने अपने शिष्य मानदेव को आचार्य पद प्रदान किया । आचार्य पद प्रदान करते समय मानदेव के परम प्रभावक भव्य व्यक्तित्व एवं सम्मोहक सौन्दर्य को देख कर प्रद्योतन सूरि को मन ही मन यह शंका उत्पन्न हुई कि इस प्रकार के सम्मोहक व्यक्तित्व का धनी यह मानदेव आचार्य पद की सत्ता प्राप्त हो जाने के बाद संयम-मार्ग में किस प्रकार स्थिर रह सकेगा? कहीं यह आगे चलकर संयम मार्ग से च्युत तो नहीं हो जायेगा?
इंगितज्ञ मानदेव सूरि ने अपने आराध्य गुरुदेव के मनोभावों को समझ लिया और तत्क्षरण उन्होंने हाथ जोड़कर अपने गुरु से निवेदन किया कि भगवन् ! मैं जीवन भर के लिये घृत दधि दूध तैल आदि सभी प्रकार की विकृतियों का त्याग करता हूं।
आचार्य पद पर आसीन होने के पश्चात् घोर तपश्चरण करते हुए श्री मानदेव सूरि ने जिन शासन की महती प्रभावना की। उनकी तपस्या के प्रभाव से अनेक प्रकार की लब्धियां एवं सिद्धियां स्वतः ही आकर उनके अधीन हो गई।
प्रभावक चरित्र और अनेक अन्य ग्रन्थों तथा पट्टावलियों में इस प्रकार का उल्लेख है कि तपोधन मानदेव सूरि की सेवा में जया और विजया नामकी दो देवियां सदा उपस्थित रहती थीं।
___ उधर समृद्ध श्रावकों और चैत्यों से सुशोभित तक्षशिला नगरी में भयंकर महामारी का प्रकोप प्रारम्भ हो गया। चतुर्विध संघ ने महामारी की शान्ति के लिए अनेक प्रकार के प्रयत्नादि किये किन्तु महामारी का प्रकोप उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। चतुर्विध संघ ने और कोई उपाय न देखकर वीरदत्त नाम के एक श्रावक को
-
' पदप्रदानावसरे समीक्ष्य साक्षात्तदंसोपरिवाणिपद्म ।
राज्यादिव क्षोणिपुरन्दरस्य भ्रन्शोऽस्य भावो नियमस्थितेहा ।।७२॥ इत्थं गुरु स्वं विमनायमानमालोक्य लोकेश्वरगीतकीत्तिः । तत्याज यः षड्विकृतीव्रतींद्रः षडांतरारीनिव जेतुकामः ॥७३।।
(श्रीमन्महावीर पट्ट परम्परा) २ प्रभावाद् ब्रह्मणस्तस्य मानदेवप्रभोस्तदा । श्री जयाविजयादेव्यो नित्यं प्रणमतः क्रमौ ॥२५॥
(प्रभावक चरित्र, पृष्ठ ११८)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org