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________________ शोलांकाचार्य अपर नाम शीलाचार्य तथा विमल मति वीर निर्वाण की चौदहवीं शताब्दी में प्राकृत भाषा के उच्च कोटि के ग्रन्थ 'चउवन्न महापुरिस चरियं' के रचनाकार आचार्य शीलांक, अपर नाम विमलमति । तथा शीलाचार्य प्राकृत भाषा के उद्भट विद्वान् एवं महान् जिनशासन प्रभावक आचार्य हुए हैं । शीलांकाचार्य नाम के तीन विद्वान् प्राचार्य भिन्न-भिन्न समय में हुए हैं। उनमें एक शीलांकाचार्य का महान् कोशकार के रूप में जैन वांग्मय में उल्लेख उपलब्ध होता है, पर वह कोश वर्तमान काल में कहीं उपलब्ध नहीं है । दूसरे शीलांकाचार्य वे हैं जिन्होंने वीर नि० सं० १४०३ में प्राचारांग-टीका की रचना की, इनका यथाशक्य पूरा परिचय दिया जा चुका है। इन्हीं शीलांकाचार्य ने सूत्रकृतांग की टीका का और जीवसमासवृत्ति की रचनाएं की। इसी नाम के तीसरे विद्वान् आचार्य हैं शीलांक-शीलाचार्य अथवा विमलमति प्राचार्य । इन्होंने वि० सं० ६२५ में "चउवन्नमहापुरिसचरियं" नामक उच्च कोटि के चरित्रग्रन्थ की प्राकृत भाषा में रचना की। आपका जीवनवृत्त जैन, वांग्मय के विभिन्न ग्रन्थों में बिखरा हुआ उपलब्ध होता है। उन सब ग्रन्थों के आधार पर आपके जीवन की घटनाओं को क्रमबद्ध रूप से एक जगह लिखा जाय तो आपका जीवनपरिचय निम्नलिखित रूप में दिया जा सकता है : प्रभावकचरित्र के अनुसार श्री सर्वदेवसरि ने कोरंटक नगर के चैत्यवासी उपाध्याय देवचन्द्र को प्रतिबोध देकर वनवासी परम्परा में दीक्षित किया । देवचन्द्र ने वनवासी परम्परा में दीक्षित होने के पश्चात् घोर तपश्चरण के साथ-साथ आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया। उनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर श्री सर्वदेवसूरि ने वाराणसी में देवचन्द्र मुनि को प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। जिस समय देवसूरि को प्राचार्य पद पर अधिष्ठित किया, उस समय वे पर्याप्तरूपेण वयो-वद्ध हो चुके थे, इस कारण वे वृद्धदेवसूरि के नाम से लोक में विख्यात हुए। वृहत् पौषधशालिक पट्टावली में उल्लेख है कि इन वृद्ध देवसूरि को वनवासी परम्परा को पुनरुज्जीवित करने वाले प्राचार्य सामन्तभद्र के उत्तराधिकारी के रूप में प्राचार्य पद प्रदान किया गया था । वह उल्लेख इस प्रकार है: "सिरि वज्जसेणसूरि, कुलहेऊ चंदसूरितप्पट्टे । सामन्तभद्दसुगुरु, वरणवास रुईविरायेण ॥६॥ सिरिवुड्ढदेवसूरि, पज्जोयरण मारणदेव मुरिगदेवा........ ॥७॥ ' श्री देव विमलगणि द्वारा रचित "श्री मन्महावीर पट्टधर परम्परा" के श्लोक सं० ६५-७० में इसका स्पष्ट उल्लेख है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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