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________________ जैन ग्रन्थकार महाराजाधिराज अमोघवर्ष नपतंग वीर निर्वाण सम्वत् १३७५ के आसपास राष्ट्रकूटवंशीय महाराजाधिराज अमोघवर्ष (प्रथम) अपरनाम नृपतुंग ने 'कविराज मार्गालंकार' की और १४०० के आसपास 'रत्नमालिका' की रचना की। 'रत्नमालिका' की प्रशस्ति में स्वयं नपतुंगअमोघवर्ष ने लिखा है : विवेकात्यक्त राज्येन, राज्ञेयं रत्नमालिका । रचितामोघवर्षेण, . सुधियां सदलंकृति ।। इस प्रशस्ति श्लोक से अनुमान किया जाता है कि महाराजा अमोघवर्ष ने ई. सन् ८७५ (वीर निर्वाण सम्वत् १४०२) में राज्य का त्याग करके जैन मुनियों के सत्संग में रहकर आत्म साधना करते समय 'रत्नमालिका' नामक इस ग्रन्थ की रचना की। महाराजा अमोघवर्ष अपने समय का महान योद्धा होने के साथ-साथ जैन धर्म के प्रति प्रगाढ निष्ठा रखने वाला विद्वान ग्रन्थ निर्माता भी था। इस राजा ने वस्तुत: अनेक संग्रामों में विजय प्राप्त करते समय शस्त्रास्त्रों के प्रहारों से शत्रुओं के संहार के साथ-साथ स्वयं के शरीर के अंग प्रत्यंग को शत्रों द्वारा किये गये प्रहारों के घावों से मंडित कर और राज सिंहासन का स्वेच्छापूर्वक परित्याग कर अपना अन्तिम समय जैनाचार्यों के पास अध्यात्म साधना में बिताते हुए 'जे कम्मे सूरा ते धम्मे सरा' इस आर्षोक्ति को अक्षरक्षः सत्य सिद्ध कर बताया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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