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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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पाल्यकीर्ति ने शाकटायन व्याकरण-शब्दानुशासन की स्वोपज्ञ वृत्ति का शुभारम्भ "श्रीममत ज्योतिः" इस आदि मंगलाचरण से किया है। वादिराजसरि ने इसी 'श्री' को लक्ष्य कर उपर्युक्त श्लोक में यह बात कही है कि शाकटायन व्याकरण को प्रारम्भ करते ही व्यक्ति व्याकरण का विद्वान् बन जाता है। शाकटायन ने शब्दानुशासन की अमोघवृत्ति के अनेक सूत्रों में यापनीय संघ की मान्यतामों का उल्लेख किया है । वे सभी श्वेताम्बर परम्परा की मान्यताओं के समान हैं।
वादिराज सूरि से भी पाल्यकीर्ति की प्रशंसा करने में आगे बढ़कर यक्षवर्मा ने चिन्तामणि टीका में पाल्यकीर्ति के लिये सकलज्ञान "साम्राज्य पद माप्तवान्" इस वाक्य से यहां तक कह दिया है कि पाल्यकीर्ति ने सम्पूर्ण ज्ञान के साम्राज्य पद अर्थात् सार्वभौम सम्राट चक्रवर्ती का पद प्राप्त कर लिया था।
उपर्युक्त उल्लेखों पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि पाल्यकीर्ति की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई थी और जिस प्रकार हेमचन्द्राचार्य की उत्तरी भारत में और मुख्यतः गुजरात व राजस्थान में कलिकाल सर्वज्ञ के रूप में प्रसिद्धि हो गई थी, ठीक उसी प्रकार भारत के सुदूरस्थ प्रदेशों में विशेषतः सम्पूर्ण दक्षिणापथ में पाल्यकीति की "सकल ज्ञान साम्राज्य सम्राट" के रूप में और सम्पूर्ण भारत में महान् वैयाकरण के रूप में प्रसिद्धि हो गई थी।
पाल्यकीर्ति जैसे उच्चकोटि के विद्वान् ने और भी अनेक ग्रन्यों की रचनायें की होंगी, किन्तु यापनीय परम्परा के विलुप्त होने के प्रनन्तर यापनीय परम्परा के विपुल माहित्य के साथ संभव है पाल्यकीर्ति द्वारा रचित कतिपय ग्रन्थ भी दूसरी परम्परामों द्वारा अपने साहित्य के अन्तर्गत समाविष्ट कर लिये गये हों अथवा सारसम्हाल, देख-रेख करने वाले यापनीय परम्परा के साधु-साध्वियों तथा उपासकउपासिकामों के प्रभाव में नष्ट हो गये हों। इस प्रकार की पाशंका निराधार भी नहीं है । इन्हीं विद्वान् पाल्यकीर्ति की मान्यता का उल्लेख करते हुए राजशेखर ने काव्य मीमांसा में पाल्यकीर्ति के किसी अन्य का उद्धरण दिया है, जो इस प्रकार है :
"यथा तथा वास्तु-वस्तुनो रूपं वक्त प्रकृतिविशेषायत्तातु रसवत्ता। तथा चायमर्थरिक्तः स्तौति, ते विरक्तो विनिन्दति, मध्यस्थस्तु तत्रोदास्ते इति पाल्यकीर्तिः।"
इस उद्धरण से यह सिद्ध होता है कि पाल्यकीर्ति का कोई एक ऐसा अन्य पूर्वकाल में विद्यमान था जिससे कि राजशेखर ने इस गद्य को अपने ग्रन्थ में उबात
' विशेष विवरण के लिये प्रस्तुत ग्रन्थ का यापनीय प्रकरण (पष्ठ १९०-२५१) देखें।
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