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शाकटायन-पाल्यकोति
प्राचार्य शाकटायन की भारत के पाठ शाब्दिको अर्थात् वैयाकरणों में पांचवें और पाणिनी तथा अमरसिंह से भी पूर्व स्थान पर गणना की गई है। शाकटायन का अपरनाम पाल्यकीर्ति भी है। आचार्य शाकटायन यापनीय परम्परा के महान्. प्राचार्य और ग्रन्थकार थे । प्रस्तुत ग्रन्थ में यापनीय परम्परा के प्रकरण में यापनीय परम्परा के परिचय के साथ-साथ प्राचार्य शाकटायन आदि कतिपय प्राचार्यों की रचनामों का उल्लेख भी किया गया है।'
शाकटायन द्वारा रचित निम्नलिखित ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं :१. शब्दानुशासन । २. शब्दानुशासन की स्वोपज्ञ अमोघवृत्ति । ३. स्त्रीमुक्ति प्रकरण। ४. केवली भुक्ति प्रकरण ।
शाकटायन का 'शब्दानुशासन' अनेक शताब्दियों तक पूर्व काल में सम्पूर्ण भारत का लोकप्रिय व्याकरण रहा है। पाल्यकीति और इनके 'शब्दानुशासन' की प्रशंसा करते हुए वादिराज सूरी ने 'पार्श्वनाथ चरित्र' में लिखा है :
कुतस्त्या तस्य सा शक्तिः पाल्यकीर्तेर्महौजसः ।
श्रीपद-श्रवणं यस्य, शब्दिकान् कुरुते जनान् ।। अर्थात्-उन महान् प्रोजस्वी पाल्यकीर्ति की अचिन्त्य शक्ति की महिमा किन शब्दों में की जाय-वह शक्ति उन्हें कहां से प्राप्त हुई कि जो इसका केवल "श्री" यह एक पद सुनने मात्र से ही यह लोगों को शब्द शास्त्र में पारंगत वैयाकरण बना देती है।
पाल्यकीर्ति के 'शब्दानुशासन' पर 'स्वोपज्ञ अमोघवृत्ति' के अतिरिक्त ६ अन्य टीकाएं (१) शाकटायन न्यास (२) चिन्तामणि लघीयसी टीका (३) मरिण प्रकाशिका (४) प्रक्रिया संग्रह (५) शाकटायन टीका और तमिल के दशवीं शताब्दी के जैन वैयाकरण अमित सागर के शिष्य दयापाल मुनि द्वारा रचित (६) रूप सिद्धि।
' प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० १९०-२५१
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