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________________ ६६८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास--भाग ३ IMAir in श्लोक प्रमाण और जयघवला नामक 'कषाय पाहुड' की २० हजार श्लोक प्रमाण टीका वीरसेन द्वारा और ४० हजार श्लोक प्रमाण टीका जिनसेन द्वारा निर्मित की गई। इस प्रकार प्राचार्य वीरसेन और प्राचार्य जिनसेन- इन दोनों गुरु शिष्य ने मिलकर १,३२,००० श्लोक प्रमाण धवला और जयधवला नामक दो विशाल टीका ग्रन्थों की रचना की। ___ इस महान कार्य में जिनसेन अपने गुरु के जीवनकाल में उनके साथ और उनके दिवंगत होने पर अपने गुरु भ्राता श्रीपाल और अपने शिष्य गुणधर के साथ कम से कम तीस वर्ष तक पूर्णतः व्यस्त रहे होंगे। अपने गुरुभ्राता श्रीपाल को तो जयधवला का संपालक अर्थात् सुचारु रूपेण लालन-पालन करने वाला बताया है।' जिनसेन को तोसरी महान् कृति 'प्रादि पुराण' जयघवला टीका पूर्ण करने के अनन्तर अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में जिनसेन ने अपने गुरु के महाभारत पुराण जैसे ही जैन परम्परा के महापुराण की रचना के स्वप्न को साकार करने का कार्य पुनः अपने हाथ में लेते हुए इसके पूर्वार्द्ध 'आदि पुराण' की अग्रेतर रचना प्रारम्भ की। जयघवला टीका की रचना से पूर्व वे 'आदि पुराण' को किस पर्व तक रचना कर चुके थे और उसके पश्चात् कितने वर्षों तक वे इसकी रचना में संलग्न रहे इन सब तथ्यों का उल्लेख कहीं उपलब्ध न होने के कारण इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता । उपलब्ध तथ्यों के आधार पर केवल इतना ही कहा जा सकता है कि आदि पुराण के सब मिलाकर ४७ पवों में से प्राचार्य जिनसेन पूरे ४२ पवों का और ४३ वें पर्व के तीन श्लोकों का निर्माण कर पाये थे कि वे दिवंगत हो गये। 'प्रादि पुराण' वस्तुत: संस्कृत भाषा का एक उच्च कोटि का महाकाव्य है। इसमें प्राय: सभी छन्दों, रसों और अलंकारों को समाविष्ट किया गया है। सूक्तियों का तो 'प्रादि पुराण' को समृद्ध निधान कहा जा सकता है । उत्कृष्ट कोटि के महाकाव्य में जिस प्रकार के लक्षण होने चाहिए, वे सभी लक्षण 'महापुराण' में विद्यमान हैं। शक सं० ७०५ में पूर्ण किये गये अपने ग्रन्थ 'हरिवंश पुराण' की आदि में पुन्नाट संघीय प्राचार्य जिनसेन की और इनको लालित्यपूर्ण काव्यकृति 'पाश्वाभ्युदय' १ टीका श्री जयचिह्नितोऽरु धवला सूत्रार्थ संद्धातिनी । स्थयादारविचन्द्रमुज्ज्वलतपः श्रीपालसंपालिता। (जयधवला, पृष्ठ ४३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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