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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ६६७ शिष्यों से लिया है उसे देखते हुए दो दशक जैसे समय का लगना सहज सम्भव प्रतीत होता है। धवला के निर्माण के पश्चात् धुन धनी कर्मठ विद्वान वीरसेन ने 'कषाय पाहड़' पर जय धवला टीका की रचना का कार्य अपने हाथ में लिया । इसमें भी जिनसेन का अति श्रमपूर्ण सक्रिय सहयोग अवश्य रहा होगा। प्राचार्य भट्टारकवर वीरसेन 'कषाय पाहड़' पर जयघवला टीका की २० हजार श्लोक प्रमाण ही रचना कर पाये थे कि वे स्वर्गवासी हो गये। इस प्रकार जिनसेन अपने गुरु के कार्य में हाथ बटाते रहने के कारण महापुराण निर्माण के कार्य को २५ से तीस वर्ष की अवधि तक कोई विशेष गति नहीं दे सके । अपने गुरु वीरसेन के दिवंगत होने पर जिनसेन को सम्भवतः अपने गुरु के अन्त समय के अनुरोध की पूर्ति हेतु अपूर्ण रही जयधवला टीका को पूर्ण करने में जुटना पड़ा । क्योंकि वीरसेन कषायप्राभृत के प्रथम स्कंध की चार विभक्तियों पर बीस हजार श्लोक प्रमाण जयधवला टीका ही लिख पाये थे कि वे स्वर्गस्थ हो गये। बहुश्रु त तत्वद्रष्टा वीरसेन गुरु का वरदहस्त अपने सिर पर से उठ जाने के कारण जयधवला को पूर्ण करने में जिनसेन को पूरे मनोयोग से रात-दिन जुटे रहना पड़ा। अपने गुरु के दिवंगत होने के अनन्तर अनेक वर्षों तक जिनसेन को जयधवला टीका की रचना के कार्य में संलग्न रहना पड़ा और अन्ततोगत्वा उन्होंने शक सं. ७५६ की फाल्गुन शुक्ला दशमी के दिन, प्रातः कालवाट ग्राम में, नन्दीश्वर महोत्सव के समय, महाराजा अमोघवर्ष के शासन काल में, जय धवला की टीका की रचना पूर्ण की, जिसका कि जय धवला की प्रशस्ति में जिनसेन ने उल्लेख किया है : इति श्रीवीरसेनीया, टीका सूत्रार्थदशिनी। वाटग्रामपुरे श्रीमद् गुर्जरार्यानुपालिते ।। ६ ।। फाल्गुने मासि पूर्वाह्न, दशम्यां शुक्ल पक्षके । प्रवर्धमान पूजोरु-नन्दीश्वर महोत्सवे ।। ७ ।। अमोघवर्ष राजेन्द्र राज्य प्राज्य गुणोदया। निष्ठिता प्रचयं यायादाकल्पान्तमनल्पिका ॥८॥ एकोनषष्टि समधिकसप्तशताब्देषु शक नरेन्द्रस्य । समतीतेषु समाप्ता, जयधवला प्रामृतव्याख्या ॥६॥ जिनसेन के गुरु वीरसेन ने जयधवला की २० हजार श्लोक प्रमाण टीका की रचना की थी। उसके आगे जिनसेन ने ४० हजार श्लोक प्रमाण टीका की रचना कर इसे पूर्ण किया। इस प्रकार वीरसेन द्वारा रचित धवला टीका ७२ हजार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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