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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
इन तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए विचार करने पर अनुमान किया जाता है कि पार्श्वभ्युदय काव्य की रचना जिस समय जिनसेन ने की उस समय उनकी वय २० वर्ष की होगी और उनका जन्म शक सं. ६८० के आस-पास हुआ होगा । पौगण्ड पौधावस्था में ही अपने समय के उत्कृष्ट कोटि के विद्वान् वीर सेन की सेवा में रहते हुए मेघावी जिनसेन ने किशोर वय में ही व्याकरण काव्यालंकार आदि विषयों में निष्णातता प्राप्त कर यौवन में पदार्पण करने के साथ ही काव्य रचना के क्षेत्र में प्रवेश किया और शक सं. ७०० में अनुमानतः २० वर्ष की आयु में ही 'पाश्वभ्युदय' काव्य का निर्माण कर दिया। यह श्रायु बीस से ऊपर होना भी सम्भव है ।
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'पाश्वभ्युदय' काव्य की रचना प्राचार्य जिनसेन ने अपने ज्येष्ठ गुरु भ्राता विनयसेन मुनि की प्रेरणा से की, यह इस काव्य की प्रशस्ति में उल्लिखित है । इसी प्रकार सम्भव है कि अपने किशोर वय के मेधावी शिष्य जिनसेन की काव्य रचना में 'अद्भुत क्षमता से प्रसन्न हो भट्टारक वीर सेन ने उन्हें महाभारत के समान ही चौबीस तीर्थंकरों, बारह चक्रवर्तियों, नौ नारायणों, नौ बलदेवों और नौ प्रतिनारायणों-यों सब मिलाकर त्रिषष्टि शलाका पुरुषों के जीवन चरित्रों पर विस्तार पूर्वक प्रकाश डालने वाले महापुराण की रचना की प्रेरणा की हो। ऐसा अनुमान किया जाता है कि अपने गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य कर जिनसेन ने आदि पुराण और उत्तर पुराण इन दो विशाल खण्डों में महापुराण की रचना का संकल्प कर उसके पूर्वाद्ध आदि पुराण की रचना 'पाश्वभ्युदय' काव्य की रचना के स्वल्प काल पश्चात् ही प्रारम्भ कर दी हो ।
सम्भव है जिनसेन प्रादि पुराण के कुछ ही पर्वों की रचना कर पाये होंगे कि उनके गुरु वीर सेन ने 'षट्खण्डागम' पर घवला टीका का निर्माण प्रारम्भ कर दिया हो । धवला टीका के निर्माण जैसे श्रमसाध्य महान् कार्य में विद्वान शिष्यों की सहायता की आवश्यकता अनुभव करते हुए वीर सेन ने अपने विद्वान शिष्य जिनसेन की धवला के निर्माण कार्य में सहायता ली होगी । इस कारण सम्भवतः महापुराण की रचना का कार्य जिनसेन को स्थगित करना पड़ा ।
वीरसेन ने ववला टीका की रचना का कार्य शक सं. ७३८ तदनुसार वि. सं. ८७३ (ई. सन् ८१६) की कार्तिक शुक्ला १३ बुधवार के दिन प्रातःकाल सम्पन्न किया । ७२ हजार श्लोक प्रमाण घवला टीका के निर्माण में उन्हें अपने मेधावी विद्वान शिष्य जिनसेन की कम से कम दो दशक तक तो सहायता की अनिवार्य रूपेण श्रावश्यकता रही होगी । घवला में मरिणप्रवाल शैली को अपना कर वीरसेन ने जैन वाङ्गमय के सभी ग्रन्थ रत्नों का आलोडन कर स्थान-स्थान पर उनके उद्धरण देने के साथ-साथ जटिल प्रश्नों का समाधान करते हुए इस विशाल ग्रन्थ को अतीव सुन्दर स्वरूप देने में जो अथक श्रम किया है और जो श्रम अपने
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