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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास ---भाग ३ घोरो धैर्यधनो विपक्षवनितावक्त्राम्बुजश्रीहरो,.............. हेला-स्वीकृत-गौड़-राज्य-कमलान चान्तःप्रविश्याचिराद्,
उन्मार्गे मरु-मध्यम-प्रतिबलयों वत्सराज बलैः।' अर्थात्-राष्ट्रकूटवंशीय राजा कृष्ण प्रथम के (गोविन्द द्वितीय से छोटे) पुत्र घोर-अपर नाम ध्र व ने गौड़ राज्य पर अधिकार करने के पश्चात् मालवा पर आक्रमण किया और वत्सराज को युद्ध में पराजित कर मरुभूमि की ओर भाग जाने के लिये बाध्य कर दिया।
उद्योतनसूरि द्वारा रचित कुवलयमाला की प्रशस्ति के अनुसार शक संवत् ६६६ में वत्सराज का जाबालिपुर पर शासन. था। हरिवंश पुराण की प्रशस्ति में जिनसेन के उल्लेखानुसार शक सं० ७०५ में अवन्ति (मालव) राज्य पर वत्सराज का शासन था। इन दोनों ऐतिहासिक महत्व के उल्लेखों से यह प्रमाणित होता है कि शक सं० ७०५ अर्थात् ई० सन् ७८३ तक वत्सराज का मालवा और जालौर इन दोनों ही राज्यों पर और ध्र व के बड़े भाई गोविन्द द्वितीय अपर नाम वल्लभ का प्रायः सम्पूर्ण दक्षिणापथ पर अधिकार था। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो ध्र व राष्ट्रकूट वंश राजसिंहासन पर प्रारूढ़ नहीं हया था। इससे अनुमान किया जाता है कि ई० सन् ७८५ के आस-पास ध्रव ने अपने बड़े भाई गोविन्द द्वितीय को भीषण युद्ध में हरा राज्य-च्युत और सोरब के छोटे से राज्य का स्वामी बनाकर राष्ट्रकूट राज्य पर अधिकार किया। राज्य की बागडोर सम्हालते ही ध्र व ने अपने बड़े भाई को युद्ध में सहायता करने वाले शिवमार को बन्दी बनाया और पल्लवमल्ल से कर के रूप में अनेक हाथी मंगवा कर एक प्रकार से दण्डित किया। तत्पश्चात् ध्र व ने अपना विजय अभियान प्रारम्भ किया। सर्वप्रथम उसने गौड़ों को युद्ध में पराजित कर उन्हें अपना वशवर्ती बनाया। तत्पश्चात् विन्द्य पर्वत को पार कर मालवा के राजा वत्सराज पर आक्रमण किया। इन सब कार्यों को सम्पन्न करने में ध्रव को वर्ष-डेढ़ वर्ष का समय तो कम से कम अवश्य ही लगा होगा। इन सब तथ्यों पर विचार करने पर अनुमान किया जाता है कि ध्र व ने ई० सन् ७८७ के
आस-पास वत्सराज को मालवा से जालोर की ओर पलायन करने के लिये बाध्य किया।
मालवा में अपनी पराजय के पश्चात् वत्सराज अपने जीवन के अन्त समय तक जालोर में ही रहा । जैन संघ के साथ वत्सराज के बड़े मधुर सम्बन्ध थे।
.. जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, लेख संख्या १२३, पृ. १२५
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