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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास--भाग ३
___ इसी प्रकार सम्भवत: गुणभद्र भी उत्तर पुराण का थोड़ा सा अन्तिम अंश और इसकी प्रशस्ति पूर्ण नहीं कर पाये थे कि उनका स्वर्गवास हो गया और उनके शिष्य लोकसेन ने उनके कुछ अंशों में अपूर्ण रहे हुए कार्य को पूर्ण किया। सिद्ध भू-पद्धति उत्तर पुराण की प्रशस्ति के निम्नलिखित श्लोक से :---
सिद्ध भू पद्धतिर्यस्य, टीकां संवीक्ष्य भिक्षुभिः ।
टीक्यते हेलयान्येषां, विषमापि पदे-पदे ।। यह प्रकट होता है कि भट्टारक वीरसेन ने सिद्धभूपद्धति-टीका नामक एक टीका ग्रन्थ की भी रचना की थी, जिसकी सहायता से जटिलतर गद्य-पद्यों के वास्तविक अर्थ को जिज्ञासु सहज ही हृदयंगम कर सकते थे । किन्तु वर्तमान में वह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है।
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