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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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एवं प्रचलन में आ रहे बता कर उनमें परस्पर मान्यता सम्बन्धी मतमेद की बात को प्रकट करने के साथ-साथ धवलाकार ने अपनी टीका में स्थान-स्थान पर उत्तर प्रतिपत्ति और दक्षिण प्रतिपत्ति इन दो मान्यताओं का उल्लेख किया है। आपने दक्षिण प्रतिपत्ति को ऋजु (सरल) एवं प्राचार्य परम्परागत और उत्तर प्रतिपत्ति को अनजु (जटिल) तथा प्राचार्य परम्परागत से भिन्न माना है। यह उनका दक्षिणापथ एवं उत्तरापथ की प्राचार्य परम्परामों की भोर संकेत प्रतीत होता है।
प्राचार्य वीरसेन ने षट्खण्डागम के ६ खण्डों में से प्रथम पांच खण्डों पर ही धवला टीका की रचना की है। छठे खण्ड का नाम महाबन्ध है, इसे महाघवल के नाम से भी अभिहित किया जाता है। षट्खण्डागम के इस छठे खण्ड महाबन्ध की रचना भूतबलि ने की है। महाबन्ध नामक इस छठे खण्ड का परिमाण ३० हजार श्लोक प्रमाण है।
प्राचार्य वीरसेन की दूसरी कृति : षट्खण्डागम पर ७२ हजार प्रमाण धवला नामक टीका का निर्माण सम्पन्न करने के पश्चात् प्राचार्य वीरसेन ने कषायपाहुड़ पर जयघवला नामक टीका का निर्माण करना प्रारम्भ किया। वे जयघवला टीका की २० हजार श्लोक प्रमाण ही रचना कर पाये थे कि उनका स्वर्गवास हो गया। इसकी पूर्णाहति बीरसेन के पट्टधरशिष्य जिनसेन ने शक सं. ७५६ तदनुसार विक्रम सं. ८९४ में की।
यह संयोग को है बात है कि सेनगण में लगातार तीन चार पीढ़ियों तक विद्वान् ग्रन्थकार होते रहे और अपने गुरु द्वारा प्रारम्भ किये हुए पर देववशात प्रधरे रहे हुए कार्य को शिष्य पूरे करते रहे। वीरसेन ने जयधवला की रचना प्रारम्भ कर दी थी किन्तु वे २० हजार श्लोक प्रमारण ही इस टीका का निर्माण कर पाये थे कि उनका स्वर्गवास हो गया और उनके शिष्य जिनसेन ने ४० हजार श्लोकप्रमाण उससे आगे की टीका की रचना कर अपने गुरु वीरसेन द्वारा प्रारम्भ किये हुए कार्य को पूर्ण किया।
___ इसी प्रकार प्राचार्य जिनसेन ने पार्वाभ्युदय, जयधवला प्रादि के निर्माण के अनन्तर महापुराण की रचना प्रारम्भ की। महापुराण का पूर्वार्ट 'आदिपुराण' वे सम्पूर्ण नहीं कर पाये थे कि उनका स्वर्गारोहण हो गया। जिनसेन ने आदि पुराण के ४७ पर्व और बारह हजार श्लोकों में से ४२ पर्व पूर्ण और ४३वें सर्ग के केवल ३ श्लोक ही लिखे थे। शेष चार पर्वो के १६२० श्लोक उनके विद्वान् शिष्य गुणभद्र ने लिखकर प्रादि पुराण को पूर्ण किया और महापुराण के उत्तराई उत्तर पुराण की रचना की । इस प्रकार गुणभद्र ने अपने गुरु जिनसेन के अपूर्ण रहे हुए कार्य को पूर्ण किया।
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