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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
पंचस्तूपान्वयी प्राचार्य वीरसेन ने धवला की प्रशस्ति में अपने आपको आचार्य चन्द्रसेन का प्रशिष्य और प्रार्य नन्दि ( पंचस्तूपान्वयी ) का शिष्य बताते हुए लिखा है कि चित्रकूट पुर के एलाचार्य से षट्खण्डागम ( महाकर्म प्रकृतिप्राभृत) नामक सिद्धान्त शास्त्र का अध्ययन किया । तदनन्तर अनेक सूत्रों, सिद्धान्त ग्रन्थों का अवलोकन कर एलाचार्य की प्रेरणा से षट्खण्डागम पर धवला टीका का वाटग्राम में निर्माण प्रारम्भ किया । षट्खण्डागम पर वीरसेन से बहुत पूर्व अनेक टीकाएं लिखी गई थीं, जिनमें कुंदकुंदाचार्यकृत परिकर्म, शामकुंडकृत पद्धति, तुम्बुलूराचार्यकृत चूड़ामणि, समन्तभद्रकृत टीका और बप्पदेव गुरु द्वारा कृत व्याख्याप्रज्ञप्ति नामक टीकाएं प्रमुख थीं । ईशा की तीसरी चौथी शताब्दी से ६ठी शताब्दी के बीच की अवधि में निर्मित उन टीकानों में से वर्तमान में एक भी टीका उपलब्ध नहीं है ।
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प्राचार्य वीरसेन ने बप्पगुरुदेव की षट्खण्डागम पर जो व्याख्या - प्रज्ञप्ति नाम की टीका थी, उसके आधार पर षट्खण्डागम की धवला नामक विशाल टीका का निर्माण किया । प्रशस्ति में वीरसेन द्वारा किये गये उल्लेख के अनुसार उन्होंने वि. सं. ७३८ में जगतुंग देव के राज्य काल के पश्चात् (सम्भवत: अमोघवर्ष प्रथम के शासनकाल में ) वाटग्राम में कार्तिकशुक्ला त्रयोदशी के दिन घवला टीका की रचना सम्पन्न की। इस टीका के निर्मारण में प्राचार्य वीरसेन ने चूर्णिकारों की शैली को अपनाकर संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है । धवला टीका कुल मिलाकर ७२ हजार श्लोक प्रमाण का विशाल ग्रन्थ है । धवला टीका का तीन चौथाई भाग प्राकृत में और शेष भाग संस्कृत भाषा में है । टीका की प्राकृत भाषा मुख्यतया शौरसेनी है । घवला का निर्माण ६ खण्डों में किया गया है। इसकी शैली सुन्दर, सुबोधगम्य, परिमार्जित और प्रौढ़ है । इसमें छेदसूत्र, जीवसमास, सत्कर्मप्राभूत, पंचत्थिपाहुड़, कषायप्राभृत, सन्मतिसूत्र, त्रिलोकप्रज्ञप्ति, तत्वार्थसूत्र, मूलाचार, दशर्कारिणसंग्रह अकलंककृत तत्वार्थभाष्य आदि प्रनेकं महत्वपूर्ण सैद्धान्तिक ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है। आचार्य वीर सेन की इस धवला टीका में श्वेताम्बर परम्परा द्वारा बहुमान्य आचारांग, वृहत्कल्पसूत्र, दशवैकालिक सूत्र, अनुयोग द्वार भौर प्रावश्यक नियुक्ति श्रादि श्रागम एवं प्रागमिक ग्रन्थों के अनेक उद्धरण दिये गये हैं । वीरसेन ने घवला में नागहस्ति ( श्वेताम्बराचार्य) के उपदेशों को "पवाइज्जंत" प्रर्थात् आचार्य - परम्परागत बताया है और दूसरी ओर प्रार्य मंक्षु ( श्वेताम्बराचार्य प्रार्य मंगु) के उपदेशों को अपवाइज्जंत अर्थात् प्रचलन में कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं रखने वाला बताया है । वीरसेन के इस प्रकार के उल्लेखों से यह एक नई बात प्रकट होती है कि प्रार्य मंक्षु और आर्य नागहस्ति इन गुरुशिष्य प्राचार्यों में कतिपय प्रकार के मान्यता भेद भी थे ।
आर्य मंक्षु के उपदेशों को प्राचार्य परम्परा द्वारा श्रसम्मत एवं प्रचलन में नहीं भा रहे तथा आर्य नागहस्ति के उपदेशों को आचार्य परम्परा द्वारा सम्मत
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