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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ६५३ किसी प्रकार की शंका नहीं रह जाती। उसे दृढ़ विश्वास हो जाता है कि संसार में सुनिश्चित रूप से सर्वज्ञ हुए हैं, होते हैं और होंगे। ___ प्राचार्य वीरसेन ने धवला की प्रशस्ति के "तह णत्तुवेण पंचथूहण्णयभाणुणा मुरिणणा" इस श्लोकार्द्ध में अपने आपको पंचस्तूपान्वयी बताया है। इनके प्रशिष्य गुणभद्र के शिष्य लोकसेन ने उत्तरपुराण की प्रशस्ति के दूसरे श्लोक में “महापुरुषरत्नानां, स्थान सेनान्वयो जनि।" इस पद से अपनी गुरु परम्परा को सेन परम्परा बताया है। "भट्टारक सम्प्रदाय" नामक ग्रन्थ के रचनाकार प्रोफेसर जोहरापुरकर के अभिमतानुसार सेन गण और पुन्नाट संघ-ये दो आम्नाय भट्टारक परम्परा के प्राचीनतम स्वरूप हैं। सेन गण से सम्बन्धित प्रशस्तियों और अन्य उल्लेखों पर समीक्षात्मक दृष्टि से विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सेनगण का पूर्व रूप पंचस्तूपान्वय था। पंचस्तूपान्वय का सम्बन्ध मथुरा के पांच स्तूपों से है अथवा नहीं यह प्रश्न शोध की अपेक्षा रखता है । अपने ग्रन्थ "भट्टारक सम्प्रदाय" के लेख सं. ११ और १२ का उल्लेख करते हुए श्री जोहरापुरकर ने सिद्ध किया है कि सेन गण के साथ इसके पोगरि गच्छ का उल्लेख प्राचीन अभिलेखों में उपलब्ध होता है । इनसे उत्तरवर्तीकाल के लेख संख्या २१, २४ और ३२ में पोगरि गच्छ का नाम "पुष्कर गच्छ” ने ले लिया है । "पुष्कर गच्छ"-इस संस्कृत शब्द का ही पोगरि गच्छ कन्नड़ी भाषा में रूपान्तर है । आन्ध्र प्रदेश में पोगरि नामक एक स्थान है। इस पोगरि गच्छ अथवा पुष्कर गच्छ का सम्बन्ध राजस्थान प्रदेशवर्ती पुष्कर से है अथवा आन्ध्र प्रदेश के पोगरि स्थान से, इस विषय में अनुसन्धान की प्रावश्यकता है।' ___ इन्द्रनन्दि ने अपनी कृति "श्रु तावतार" में पहबलि द्वारा किये गये संघ विभाजन के समय ही पंच स्तूपों के स्थान से आये हुए सेन और भद्र नामक प्राचार्यद्वय से सेन गरण की उत्पत्ति बताने वाले एक अज्ञातकर्तृक श्लोक को उद्धृत किया है, जो इस प्रकार है : आयातो नन्दिवीरौ प्रकटगिरिगुहावासतो शोकवाटादेवाश्चान्यो परादिजित इति यतिपो सेन भद्राह्वयो च । पंचस्तूप्यात्सगुप्तो गुरगधर वृषभः शाल्मलीवृक्षमूलानिर्यातो सिंहचन्द्रौ प्रथितगुरणगणो केसरात्खण्डपूर्वात् ।। इससे भी यह सिद्ध होता है कि सेन गण बहुत प्राचीन गण है और पंचस्तूपों से आये हुए मुनियों में से सेन मुनि के नाम पर यह गण प्रचलित हुमा, इसी कारण इसका दूसरा नाम पंचस्तूपान्वय भी लोक में प्रसिद्धि पाता रहा ।। ---- - - .' २ भटारक सम्प्रदाय (प्रो. वी. पी. जोहरापुरकर) पृष्ठ २६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग ३, पृष्ठ ७३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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