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भट्टारक परम्परा के महान् ग्रन्थकार
प्राचार्य वीरसेन
विक्रम की नौवीं शताब्दी में सेन गण-पंचस्तूपान्वयी संघ के एक महान् टीकाकार एवं ग्रन्थकार जिनसेन ने अपनी महान कृतियों-धवला और जय धवला की रचना द्वारा जिनशासन की प्रभावना के साथ-साथ जैन वांग्मय की महती सेवा कर अक्षय कीर्ति अर्जित की । पंचस्तूपान्वयी परम्परा से भिन्न परम्परा के प्राचार्यों एवं अग्रगण्य ग्रन्थकारों ने भी आपकी कवित्वशक्ति तथा आपके प्रकाण्ड पाण्डित्य की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। पुन्नाटसंघीय आचार्य जिनसेन ने श्री वीरसेन प्राचार्य को कवियों में सार्वभौम सम्राट चक्रवर्ती की उपमा देते हुए हरिवंश पुराण में लिखा है :---
जितात्मपरलोकस्य, कवीनां चक्रवर्तिनः ।
वीरसेन गुरोर्कीतिरकलंका बभासते ।।३।। पुन्नाट संघीय भट्टारक जिनसेन के शिष्य गुणभद्र ने धवलाकार वीरसेन भट्टारक को प्रतिवादियों के मद को, अहं को चूर्णित-विचूणित कर देने वाला और ज्ञान तथा चारित्र के सारभूत श्रेष्ठतम परमारणों से निर्मित अथवा सशरीर साक्षात् ज्ञान और चारित्र की प्रतिमूर्ति बताते हुए इनकी प्रशंसा में कहा है :--
तत्र वित्रासिताशेष प्रवादिमदवारणः । वीरसेनाग्ररणी वीरसेन भट्टारको बभौ ।।३।।
ज्ञानचारित्रसामग्रीमग्रहीदिव विग्रहम् ॥४॥ उत्तर पु. प्रशस्ति ।
वीरसेन के शिष्य जयधवलाकार ने अपने इन गुरु की ज्ञान-गरिमा की श्लाघा करते हुए लिखा है :
यस्य नैसर्गिकी प्रज्ञां, दृष्ट्वा सर्वार्थगामिनीं । जाता सर्वज्ञ संवादे, निरारेका मनीषिणः ।। २१ ।। जय ध. प्रशस्ति ।
अर्थात् -- निगढ़तम, गहनतम विषयों अथवा प्रश्नों का यथातथ्य-रूपेण निरूपण कर देने वाली वीरसेन की स्वाभाविकी ज्ञानगरिमा अथवा मेघाविता को देख कर किसी भी विचारक मनीषी को सर्वज्ञ-सर्वदर्शी केवलज्ञानी की सत्ता में
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