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कृष्ण गच्छ
कृष्णर्षि गच्छ थारपद्र ( बटेश्वर ) गच्छ की ही शाखा के रूप में उदित हुआ । विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में किसी समय हारिल गच्छ के महा तपस्वी कृष्णर्षि ने अपने नाम पर कृष्णर्षि गच्छ की स्थापना की ।
इस गच्छ के संस्थापक कृष्णर्षि, कुवलयमालाकार उद्योतनसूरि के गुरु भ्राता तथा हारिल गच्छ के छठे श्राचार्य तत्वाचार्य के शिष्य यक्ष महत्तर के शिष्य थे ।
प्राचार्य कृष्णषि बड़े ही तपस्वी थे । इनके सम्बन्ध में कहा जाता है कि इनका तपस्या का क्रम निरन्तर चलता ही रहता था। एक वर्ष में ये केवल ३४ ही पारणक ( भोजन ग्रहरण) किया करते थे । एक महीना और चार दिन के अतिरिक्त शेष १० मास और २६ दिन घोर निराहार तपस्या में ही व्यतीत होते थे । इस प्रकार के घोर तपश्चरण के कारण कृष्णर्षि को अनेक प्रकार की सिद्धियां स्वतः ही प्राप्त हो गई थीं । कुलगुरुत्रों की बहियों के उल्लेखानुसार कृष्णर्षि ने शक सं० ७१६ तदनुसार वि० सं० ८५४ में नागोर के श्रेष्ठि नारायण को जैन धर्मावलम्बी बनाकर श्रोसवालों के बरड़िया गोत्र की स्थापना की । इस श्रेष्ठी नारायण ने कृष्ण की प्रेरणा से नागौर नगर में एक जिनमन्दिर बनवा कर उसमें भ. महावीर की मूर्ति की प्रतिष्ठापना करवाई । कृष्णर्षि ने इस मन्दिर की सुव्यवस्था एवं सुरक्षा के लिये ७२ गण्यमान्य श्रावकों की एक व्यवस्था समिति का गठन करवाया ।
इस प्रकार की स्थिति में अनुमान किया जाता है कि कृष्णर्षि ने विक्रम की हवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में किसी समय कृष्णर्षि गच्छ की स्थापना की ।
इन्हीं कृष्णषि के शिष्य श्राचार्य जयसिंहसूरि ने श्रमराज के पौत्र ग्वालियर के राजा भोजदेव के शासन काल में वि. सं. ६१५ की भाद्रपद शुक्ला ५ के दिन ६८ गाथात्मक धर्मोपदेश माला और उस पर ५७७८ श्लोक प्रमाण स्वोपज्ञ वृत्ति की रचना कर उसकी प्रशस्ति में थारपद्र गच्छ के संस्थापक एवं हारिल गच्छ के आचार्य बटेश्वर सूरि से लेकर अपने ( आचार्य जयसिंह के ) समय तक की पट्टपरम्परा दी है ।
कृष्णषि ने अनेक श्रजैनों को जैन एवं श्रद्धालु श्रावक बनाया । इन्होंने तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियों की यात्राएं कीं, अनेक संघ यात्राएं आयोजित करवाईं, इनकी प्रेरणा से अनेक मन्दिर बने और इस प्रकार कृष्णर्षि ने जैन धर्म का उल्लेखनीय प्रचार-प्रसार किया ।
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