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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
"षट्खण्डागमादि सिद्धांत शास्त्रों के विशेषज्ञ, कर्मप्रकृति के तलस्पर्शी ज्ञान को हृदयंगम कर आत्मकल्याण के लिये श्रेयस्कर उसके सारभूत तत्त्वज्ञान को अपने जीवन की दैनन्दिनी में ढालने वाले इन्द्रिय जयी जयसेनाचार्य उनके प्रगुरु थे। जयसेन के शिष्य अमितसेन पुन्नाट संघ के उनके पट्टधर आचार्य हए । प्राचार्य अमितसेन जैन सिद्धान्तों के पारदश्वा विद्वान और अपने समय के विख्यात वैयाकरणी थे। वे दीर्घजीवी अर्थात सौ वर्ष की आयुष्य वाले एवं जिनशासन प्रभावक तथा उग्रतपस्वी थे। प्राचार्य अमितसेन ने श्रद्धालु जिज्ञासुओं को शास्त्रों का ज्ञान प्रदान कर अपनी अद्भुत दानशीलता का परिचय दिया। उन आचार्य अमितसेन के ज्येष्ठ गुरुभ्राता का "यथा नाम तथा गुणाः" की सूक्ति को चरितार्थ करने वाला नाम मुनि कीर्तिषेण था । वे कीर्तिषण मुनि महान् तपस्वी, शांत, दान्त और बड़े मेधावी थे। प्राचार्य अमितसेन के ज्येष्ठ गुरुभाई उन्हीं कीर्तिषेण मुनि के प्रमुख शिष्य जिनसेन ने शाश्वत शिवसुख के स्वामी भगवान अरिष्टनेमि के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धाभक्ति से प्रेरित हो इस हरिवंशपुराण नामक ग्रन्थ की रचना की।
वस्तुतः आचार्य जिनसेन का हरिवंशपुराण जैन धर्म के पुरातन इतिहास और धर्म में अभिरुचि रखने वाले जिज्ञासुओं की ज्ञानपिपासा को शांत करने में बड़ा सहायक ग्रंथरत्न है।
पुन्नाट संघ दक्षिण भारत के कर्णाटक प्रदेश का धर्म संघ था, यह सुनिश्चित रूप से कहा जा सकता है क्योंकि श्रवण बेल्गोल स्थित पार्श्वनाथ वसति के लगभग शक सं. ५२२ के वहां के सर्वाधिक प्राचीन शिलालेख सं. १ के अनुसार द्वितीय भद्रबाहु अपने शिष्यसंघ के साथ दक्षिणापथ के कर्णाटक प्रदेश में कटवप्र नामक स्थान पर गये थे। उस समय पुन्नाट प्रदेश की राजधानी कित्तर में थी इसी कारण पुन्नाट प्रदेश को कित्तूर-कटवप्र के नाम से अभिहित किया जाता था। पुन्नाट प्रदेश के ये प्राचार्य जिनसेन अप्रतिहत विहार करते हुए संभवतः गिरनार की यात्रार्थ आये हों। उसी समय उन्होंने हरिवंशपुराण की रचना की। आप, जयधवला और आदि पुराण के रचनाकार पंचस्तूपान्वयी जिनसेनाचार्य के सम. कालीन थे।
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जैन शिलालेख संग्रह, भाग १ पृष्ठ सं. १, शिलालेख सं. १
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