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________________ वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ६४६ पूर्वी भारत और पश्चिमी भारत-इस प्रकार सम्पूर्ण भारत के शक्तिशाली राजवंशों के महाराजापों का नामोल्लेख किया गया है। प्रशस्ति में नामांकित भारत की चारों दिशाओं के चारों प्रमुख शासकों में से दक्षिण का राष्ट्रकटवंशीय महाराजा श्री वल्लभ अपर नाम गोविन्द (द्वितीय) और पूर्वी भारत के शासक अवन्ति नरेश वत्सराज (जिसको इस प्रशस्ति में वर्णित राष्ट्रकटवंशीय राजा श्रीवल्लभ के भ्राता ध्र वराज ने परास्त कर उससे प्रवन्ति का राज्य छीन लिया था)--ये दोनों ही शासक इतिहास-प्रसिद्ध महाराजा हैं। उत्तरी भारत के शासक इंद्रायुध किस राजवंश का था, इस सम्बन्ध में इतिहासज्ञ अद्यावधि सर्वसम्मत निर्णय नहीं कर पाये हैं। यशस्वी इतिहासविद् स्व० श्री हीराचन्द प्रोझा ने इंद्रायुध को राठौड़वंशीय राजा और स्व० चिंतामरिण विनायक वैद्य ने भण्डि कुल (वर्म वंश) का होना अनुमानित किया है। इसी प्रकार पश्चिमी भारत के शासक जयवराह के सम्बन्ध में भी इतिहासज्ञ अद्यावधि निश्चित नहीं कर पाये हैं कि वह चालुक्य राजवंश का शासक था या चावड़ा वंश का? हरिवंश पुराण में आचार्य जिनसेन (पुन्नाट संघी) ने मुख्य रूपेण महायशस्वी हरिवंश की यादव शाखा के वर्णन के साथ-साथ विशेषतः यादवकूल के तिलक बावीसवें तीर्थङ्कर भगवान् अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) और नौवें नारायण (वासुदेव) श्रीकृष्ण के चरित्र का वर्णन किया है। हरिवंशपुराणकार ने महाभारत के अतिविशाल कथानक को भी इसी में समाविष्ट कर लिया है। वर्णनशैली अतीव मर्मस्पर्शी मनोहारी और बड़ी ही रोचक है। इसमें अतिशय-प्रौढ़ता, प्रांजलता और प्रासादिकता आदि महाकाव्य के सभी लक्षण विद्यमान हैं। सभी रसों का इसमें बड़ी शालीनता से समावेश किया गया है। ___ हरिवंश पुराण की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें श्रमण भगवान् महावीर से लेकर स्वयं (जिनसेन पुन्नाट संघीय) तक की अविछिन्न गुरु परम्परा दी गई है। दिगम्बर परम्परा की पट्टावलियों में इस गुरु परम्परा पट्टावली को सर्वाधिक सुसम्बद्ध और अविच्छिन्न पट्टावली कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।' इस गुरु परम्परा में एक बड़ी ही महत्त्वपूर्ण बात कही गई है। वह यह है कि प्राचार्य शिवगुप्त ने अपने गुणों के प्रभाव से "अर्हबलि" पद प्राप्त किया। इससे संघ विभाजन करने वाले दिगम्बराचार्य अर्हबलि के सम्बन्ध में अग्रेतर शोध में सहायता मिल सकती है। __यों तो अपनी गुरु परम्परा का जिनसेनाचार्य ने अपनी विशाल कृति हरिवंश पुराण में विस्तारपूर्वक क्रमबद्ध परिचय प्रस्तुत किया है । तथापि अपने प्रगुरु, गुरु आदि का गुणकीर्तन के साथ ग्रन्थ-प्रशस्ति में निम्नलिखित रूप में दिया है : . विशिष्ट जानकारी के लिये देखिये "जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग ३", पृष्ठ ७४० से ७४२ । २ हरिवंशपुराण की प्रश लोक सं० २६-३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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