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प्राचार्य जिनसेन (पुन्नाटसंघ)
विक्रम की हवीं शताब्दी में दिगम्बर परम्परा में अनेक प्रभावक और महान् ग्रन्थकार आचार्य हुए हैं, जिन्होंने अनेक अमर कृतियों की रचना कर जैन साहित्य को समीचीनतया समृद्ध किया। उन महान् ग्रन्थकार प्राचार्यों में पुन्नाट संघ के प्राचार्य जिनसेन का नाम अग्रगण्य है। पुत्राटसंघीय प्राचार्य जिनसेन का हरिवंश पुराण नामक एक ही ग्रन्थ उपलब्ध होता है किन्तु यह एक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण ऐसा ग्रन्थरत्न है, जिसको दिगम्बर परम्परा में इसके रचनाकाल से ही प्रागमतुल्य माना गया है।
प्राचार्य जिनसेन ने अपने इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में इसके रचनाकाल का उल्लेख करते हुए लिखा है :--
शाकेष्वव्द शतेषु सप्तसु दिशं पञ्चोत्तरेषत्तरां, पातीन्द्रायुध नाम्नि कृष्णनृपजे श्री वल्लभे दक्षिणाम् । पूर्वा श्रीमदवन्तिभूभृति नृपे वत्सादि राजे परां, सौराणामधिमण्डलं जययुते वीरे वराहेऽवति ।।५२।। कल्याण परिवर्द्धमानविपुले श्री वर्द्धमाने पुरे, श्री पालय नन्नराज वसतो पर्याप्तशेषः पुरा । पश्चाद्दोस्तटिका प्रजाप्रजनित प्राज्यार्चनावर्जने,
शांतेः शांतगृहे जिनस्य रचितो वंशो हरीणामयम् । ५३।। अर्थात्-शक सं० ७०५ तदनुसार वि० सं० ८४० में, जिस समय कि उत्तरी भारत पर इन्द्रायुध का शासन था, महाराजा कृष्ण (प्रथम) का पुत्र महाराजा श्रीवल्लभ (गोविन्द द्वितीय) दक्षिणापथ में शासन कर रहा था, अवन्ति नरेश वत्सराज का पूर्व दिशा पर राज्य था और राजा वीर जय वराह भारत के पश्चिमी प्रदेश सौरों के अधिमण्डल सौराष्ट्र पर शासन कर रहा था, उस समय विपुल स्वर्णराशियों से समृद्ध (सभी भांति पूर्णत श्रीसम्पन्न) वर्द्धमान (वर्तमान बढ़वाण) नगर में, नन्नराज-वसति के नाम से विख्यात भगवान् पार्श्वनाथ के मंदिर में इस हरिवंश पुराण नामक ग्रंथ को प्रारम्भ कर दोस्तटिका (बढ़वाण से गिरिनगर-पगरनार मार्ग पर अवस्थित दोत्तड़ि) ग्राम के प्रजा द्वारा भक्तिसहित सुचारु रूप से पूजित-प्रचित भगवान् शांतिनाथ के मंदिर में उसे पूर्ण किया।
- हरिवंश पुराण को यह प्रशस्ति ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ी ही महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसमें विक्रम की नौंवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में उत्तरी भारत, दक्षिणी भारत,
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